गत अंक से आगे.... भारतीय जीवन सन्दर्भों को
जब हम गहराई से विश्लेशित करते हैं तो हम पाते हैं कि यहाँ जीवन के विषय में बहुत व्यापक
और गहन विचार किया गया है. जीवन की सार्थकता को निर्धारित करने के लिए वर्षों से
ऋषि मुनियों ने गहन चिन्तन किया और जो भी निष्कर्ष निकला उसे सभी के साथ साँझा
किया और भी उसी आधार पर अपनी धारणा समाज के सामने रखी. चिरकाल में उसने सिद्धांत का
रूप ले लिया और सिद्धांत में फिर समय और स्थिति के अनुरूप आंशिक परिवर्तन तो हो
सकते हैं, लेकिन सिद्धांत पूरी तरह से नहीं बदल सकता. चतुर्वर्ग फल प्राप्ति के
विषय में यह बात सटीक बैठती है. हमारे यहाँ ही नहीं बल्कि विश्व का कोई भी देश ऐसा
नहीं जहाँ मानवीय मूल्य निर्धारित ना किये गए हों, जीवन का कोई लक्ष्य ना निर्धारित किया गया हो. अब हमें देखना है कि जिस
चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष) को यहाँ जीवन का साध्य माना गया है, उन
चतुर्वर्ग की क्या प्रासंगिकता है.
सबसे पहले आता है धर्म: धर्म क्या है? इसका आधार
क्या है? धर्म मानव को जीवन जीने की शिक्षा देता है. यब
बात स्वीकार्य है. धर्म की परिभाषा को लेकर बहुत समय से चिन्तन किया जाता रहा है.
समय और स्थिति के अनुसार जिसे जो सही लगा उसने वह अभिव्यक्त कर दिया. लेकिन फिर भी
एक बात तो स्वीकार्य है कि धर्म का मूल भाव व्यक्ति को जीवन जीने की कला सिखाना है.
उसे क्या करना है, क्या नहीं? इन सब बातों का विषद विवेचन
धार्मिक ग्रंथों में हुआ है. आज जिन्हें हम धर्म कहते हैं वास्तविकता में वह धर्म
नहीं वह तो जीवन जीने की पद्धतियाँ हैं, वह वास्तविकता
में एक विचार है और जब बहुत से लोगों ने उस विचार का अनुसरण करना शुरू कर दिया और
वह विचार पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के मार्गदर्शन का कारण बनता रहा तो वह विचारधारा हो
गया. विचार एक व्यक्ति का हो सकता है और जब उसी विचार को बहुत से लोगों द्वारा
पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाया जाता है तो वह विचारधारा कहलाती है. यही कुछ जिन्हें आज हम धर्म
कहते हैं उनकी स्थिति भी है. जहाँ तक ज्ञात है ‘सनातन धर्म’ को सबसे प्राचीन धर्म
कहा जाता है. थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि सनातन धर्म विश्व का सबसे प्राचीन
धर्म है. लेकिन अगर सनातन शब्द को देखें तो सना+तन . सना मतलब सटा हुआ, बिलकुल
पास, बहुत नजदीक, जितना समझ
सकते हैं उतना, जितना महसूस कर सकते हैं उतना. यानि जो
सना हुआ है जो हमारे सबसे नजदीक है. और तन का मतलब शरीर
यानि सनातन वह हुआ और शरीर के सबसे नजदीक है और वह है ईश्वर. यानि ईश्वर के
अस्तित्व को स्वीकार करने वाला सनातनी हुआ, जिसने सनातन
को स्वीकार कर लिया जिसने जीवन जीने की इस पद्धति को अपना लिया. जो ईश्वर को हाजिर-नाजर कर अपने जीवन को जीना चाहता है. वह सनातनी हुआ, और उसके द्वारा अपनाया जाने वाला धर्म हुआ है सनातन. जो
सदा रहने वाला है, जो कभी परिवर्तित होने वाला नहीं है. दूसरे शब्दों वही सनातन है. इसलिए सनातन धर्म सबसे पुराना धर्म हुआ, और इसे हमें पुराना नहीं बल्कि पहला धर्म कहना चाहिए, दुसरे शब्दों में इस यूँ भी कहा जा सकता है कि जो ईश्वरीय नियमों के
अनुकूल जीवन जीता है वह सनातनी हुआ क्योंकि वह ईश्वर को अंग-संग महसूस करते हुए
जीवन को जी रहा है. उसके सामने जीवन का कोई भ्रम नहीं. कोई दुविधा नहीं अगर कुछ है
तो वह है ईश्वर की सत्ता और यह ईश्वर सत्ता उसे जीवन दर्शन देती है. जीवन को जीने
की प्रेरणा देती है.
धर्म का मूल भाव तो यह है
इनसान को जीवन जीने की समझ देना. लेकिन आज हमारे सामने ना जाने कितने धर्म हैं,
कितने दर्शन हैं. किसी परिप्रेक्ष्य में अगर हम दखें तो यह सही भी लगता है लेकिन
जहाँ पर हमारे जहन में संकीर्णताएं पैदा हो जाती हैं तो वहां धर्म-धर्म नहीं रह
जाता वह बन्धन बन जाता है, और बन्धनों में जकड़ा हुआ इनसान फिर क्या प्रगति करेगा
और क्या सोचेगा? यह विचारणीय
प्रश्न है.
अब बात आती है अर्थ की: अर्थ से अभिप्राय है धन, अजीविका-जीवन जीने का साधन. तन के सुख के लिए जिस माध्यम से हम धन अर्जित
करते हैं वह है हमारा कर्म. हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही हम पाते भी हैं. अर्थ
का प्रयोजन सिर्फ जीवन जीने की सुविधा है. जिस कर्म को करने से हमारे जीने की
जरूरतें पूरी हो जाएँ उतने तक ही वह सही है. हमारे देश में यह परिकल्पना की गयी है
कि ‘मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू भी भूखा ना जाये’, बस यहाँ
तक ही धन की प्रासंगिकता है. अपने से पहले अपने अतिथि के बारे में सोचना. खुद से
पहले किसी दुसरे को तरजीह देना यह अर्थ का उद्देश्य
बताया गया है. अर्थ किस तरह अर्जित किया जाए यह भी बहुत विचार हुआ है यहाँ. अर्थ
की क्या महता है.कौन-कौन सी चीजें अर्थ के तहत आती हैं और कौन सी नहीं यह सब बखूबी
अभिव्यक्त हुआ है. हालाँकि पैस के प्रचलन से पहले यहाँ वस्तु के बदले वस्तु का सिद्धांत प्रचलित था वैसी स्थिति में व्यक्ति की निर्भरता व्यक्ति पर
अधिक थी और समाज के ज्यादा एक दुसरे पर आश्रित थे. उस स्थिति में धन नहीं वस्तु
मायने रखती थी और वस्तु के बदले वस्तु दी जाती थी तो गुणवता बनी रहती थी.
लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य को देखें तो सब कुछ उल्टा -पुल्टा नजर आता
है. आज तो स्थिति यह हो गयी है कि हमारे पास धन आये चाहे हमें उसके लिए किसी भी हद
तक गिरना पड़े. हमें अपनी अस्मिता से समझौता करना पड़े, ऐसा परिद्रश्य आज हमारे सामने है. जहाँ तक
व्यक्ति को धन की जरुरत जीवन जीने के लिए थी लेकिन आज वह अपनी लालसाओं की पूर्ति
के लिए धन का उपयोग कर रहा है और इस बात को भूल गया है कि ‘तृष्णा ना जीर्णः, वयमेव जीर्णः’ शेष अगले अंक में....!!!
बहुत ही दार्शनिक और शिक्षाप्रद पोस्ट बधाई और शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक आलेख..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर और ज्ञान से भरपूर आलेख
जवाब देंहटाएंआभार !
बढ़िया ज्ञान देने वाला आलेख.
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन .... अब तो धन बटोरने की ही होड़ है.....
जवाब देंहटाएंइस गहन चिंतन के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंधर्म की गहरी परिभाषाओं को समझा जाये तो कई भ्रम दूर हो जायेंगे।
जवाब देंहटाएंएक बार फिर --
जवाब देंहटाएंसामने आई
आपकी सुन्दर प्रस्तुति ||
बधाई आपको ||
बहुत ही सुंदर दार्शनिक और शिक्षाप्रद आलेख...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबधाई आपको...........:)
gahari baat raam ji
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित और ज्ञानप्रद आलेख...
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन करती अच्छी पोस्ट
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और ज्ञानवर्धक आलेख! सुन्दर प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंनितांत सात्विक चिंतन.
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय लेख। ज्ञानवर्धक, बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसमय के साथ मानव जीवन में बदलाव आते रहे हैं और इतिहासकार/रचनाकार इसे संजोते रहे हैं॥
जवाब देंहटाएंधर्म और अर्थ पर चर्चा और चिंतन करती बहुत बढ़िया ज्ञान वर्धक पोस्ट ...शुभकानायें
जवाब देंहटाएंबहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख..
जवाब देंहटाएंलेकिन आज के परिप्रेक्ष्य को देखें तो सब कुछ उल्टा -पुल्टा नजर आता है . आज तो स्थिति यह हो गयी है कि हमारे पास धन आये चाहे हमें उसके लिए किसी भी हद तक गिरना पड़े . हमें अपनी अस्मिता से समझौता करना पड़े , ऐसा परिद्रश्य आज हमारे सामने है . जहाँ तक व्यक्ति को धन की जरुरत जीवन जीने के लिए थी लेकिन आज वह अपनी लालसाओं की पूर्ति के लिए धन का उपयोग कर रहा है और इस बात को भूल गया है कि " तृष्णा ना जीर्णः, वयमेव जीर्णः " ......................
जवाब देंहटाएंएक सार्थक लेख के लिए आभार .....सच का खुलासा करता है आपका लेख .....अभी तक जितना आपने लिखा ...उसे पढ़ा हैं...आज के वक़्त में धर्म और सनातन भी ''अर्थ ''के आगे झुकते हैं ये सब जानते हैं ....आभार
बहुत ही सुंदर आलेख.विस्तृत जानकारी के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसनातन का नया अर्थ जाना ! आभार
जवाब देंहटाएंआपने धर्मं की व्याख्या बहुत सुन्दर की है.सही मायनों में हमने धर्म को अपने-अपने नजरिये से ही समझ कर आज उसे विवादित कर दिया है मेरी समझ से शायद अब वो समय आ गया है कि सिर्फ मानव धर्म ही अपनाया जाये तथा प्रसारित किया जाये...................
जवाब देंहटाएंआप मेरे ब्लॉग पर आये अच्छा लगा सदस्य भी बनें
जवाब देंहटाएंआज का धर्म अभिजात्य हो गया है अर्थात इसकी आवश्यकता नहीं रह गयी है कारण रोटी कपडा और घर को ही आवश्यक मान लिया गया है . जिस पर चलकर हम कहाँ जा रहे हैं कहने की जरुरत नहीं है . आपकी महीन पकड़ है आध्यात्म पर जो प्रभावित करती है . आपका बहुत बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन
जवाब देंहटाएंधर्म की व्याख्या करती ज्ञानवर्धक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंसही है, मौजूदा समय में धन की चाह बढती जा रही है.....
अपने चर्चा मंच पर, कुछ लिंकों की धूम।
जवाब देंहटाएंअपने चिट्ठे के लिए, उपवन में लो घूम।।
" तृष्णा ना जीर्णः, वयमेव जीर्णः "..शिक्षाप्रद-ग्रहणीय.
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन। फुर्सत में दोनो पोस्ट पढ़कर कमेंट करूँगा। अभी ठीक से पढ़ नहीं पा रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंबढ़िया ज्ञान वर्धक सुंदर आलेख ,..
जवाब देंहटाएंमेरे नए पोस्ट 'प्रतिस्पर्धा'में है इंतजार
पिछली पोस्ट पर आने के लिए दिल से आभार ...
आजकल आपकी दार्शनिकता बढती जा रही है केवल भाई.यह एक अच्छा चिन्ह है.
जवाब देंहटाएंसनातन का मतलब सना + तन (शरीर से सना हुआ या सटा हुआ) नही पल्ले पड़ा जी.ऐसा अर्थ कुछ अलग ही अर्थ कर देता है सनातन का.
सनातन का मतलब 'for ever' यानि जो हमेशा था, हमेशा है,हमेशा ही रहेगा.
आदरणीय राकेश जी
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी हमेशा प्रेरणादायी रहती है और आपका मार्गदर्शन हमेशा ही कुछ नया करने की प्रेरणा देता है .जहाँ तक मेरी दार्शनिकता का सवाल है , यह तो सब सोच की बात है . ब्लॉग जगत में एक पाठक की ही हैसियत है मेरी . उससे ज्यादा कुछ नहीं , रही लेखन की बात तो यह सब जो कुछ अनुभव करता हूँ वही अभिव्यक्त करता हूँ .
@@ अब बात सनातन शब्द की ...आपका कहना सही है . मैंने थोडा शब्द को स्तरीय तरीके से स्पष्ट करने की कोशिश की . कहना तो मैं भी वही चाह रहा हूँ जो आप कहना चाहते हैं .
## सनातन . जो सदा रहने वाला है , जो कभी परिवर्तित होने वाला नहीं है . दुसरे शब्दों वही सनातन है . इसलिए सनातन धर्म सबसे पुराना धर्म हुआ , और इसे हमें पुराना नहीं बल्कि पहला धर्म कहना चाहिए , दुसरे शब्दों में इस यूँ भी कहा जा सकता है कि जो ईश्वरीय नियमों के अनुकूल जीवन जीता है वह सनातनी हुआ क्योँकि वह ईश्वर को अंग संग महसूस करते हुए जीवन को जी रहा है . उसके सामने जीवन का कोई भ्रम नहीं . कोई दुविधा नहीं अगर कुछ है तो वह है ईश्वर की सत्ता और यह ईश्वर सत्ता उसे जीवन दर्शन देती है . जीवन को जीने की प्रेरणा देती है .##
ज्ञानवर्धक आलेख......
जवाब देंहटाएंआज का आकर्षण बना है आपका ब्लोग है ज़ख्म पर और गर्भनाल पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से
जवाब देंहटाएंअवगत कराइयेगा । http://redrose-vandana.blogspot.com
बहुत ही शिक्षाप्रद पोस्ट.. बधाई और शुभकामनायें |
जवाब देंहटाएंक्या बात है । आपेक पोस्ट ने बहुत ही भाव विभोर कर दिया । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है ।
जवाब देंहटाएंगहन चर्चा ... सनातन धर्म से लेकर अर्थ ज्ञान को साझा किया है आपने ... बहुत ही उत्तम ... ये विवेचन और व्याख्या अच्छी लगी बहुत ही ...
जवाब देंहटाएंBhaut sundar aalekh !
जवाब देंहटाएंmanojbijnori12.blogspot.com
धर्म का उद्देश्य - मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता (सदाचरण) की स्थापना करना ।
जवाब देंहटाएंव्यक्तिगत धर्म- सत्य, न्याय एवं नैतिक दृष्टि से उत्तम कर्म करना, व्यक्तिगत धर्म है ।
सामाजिक धर्म- मानव समाज में सत्य, न्याय एवं नैतिकता की स्थापना के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । ईश्वर या स्थिर बुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है ।
धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस स्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
धर्म को अपनाया नहीं जाता, धर्म का पालन किया जाता है । धर्म के विरुद्ध किया गया कर्म, अधर्म होता है ।
व्यक्ति के कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म -
राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
धर्म सनातन है भगवान शिव (त्रिदेव) से लेकर इस क्षण तक व अनन्त काल तक रहेगा ।
धर्म एवं उपासना द्वारा मोक्ष एक दूसरे आश्रित, परन्तु अलग-अलग है । ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों के हिसाब से किया जाता है ।
कृपया इस ज्ञान को सर्वत्र फैलावें । by- kpopsbjri
वर्तमान युग में पूर्ण रूप से धर्म के मार्ग पर चलना किसी भी आम मनुष्य के लिए कठिन कार्य है । इसलिए मनुष्य को सदाचार एवं मानवीय मूल्यों के साथ जीना चाहिए एवं मानव कल्याण के बारे सोचना चाहिए । इस युग में यही बेहतर है ।
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