गत अंक से आगे....आखिर क्या कारण है कि कुछ लोगों का अस्तित्व उनके
ना होने पर भी बना रहता है और कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन की दौड़ में जीते जी खो जाते
हैं. वह साँसें तो ले रहे हैं, चल
फिर तो रहे हैं. भोजन, भोग और निद्रा सब कुछ कर रहे हैं.
लेकिन फिर भी अधूरे हैं. उनके जीवन का कोई लक्ष्य नहीं, कोई आधार नहीं, कोई सोच नहीं. बस जी रहे हैं
जिन्दगी एक अनजान की तरह जो खुद के साथ होते हुए भी खुद से नहीं मिल पाते, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? खैर
यहाँ आज तक यही तो होता आया है. हमारे दर्शन में तो पहले ही स्पष्ट है कि "आये हैं सो जायेंगे, राजा रंक फकीर. एक सिंहासन चढ़ चले, एक बाँध जंजीर" जो जंजीरों में बंध गया उसने खुद को खो दिया. वह खुद
को भूल गया. उसके जीवन का कोई मकसद नहीं रहा. लेकिन जिसने खुद से बात कर ली, खुद की भावना को समझ लिया वह जीवन के मकसद के करीब पहुच गया. संभवतः उसने
अपने अस्तित्व को पहचान लिया और सजग हो गया, जीवन के
प्रति.
अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इनसान खुद के अस्तित्व को कैसे
पहचाने? यह बड़ा जटिल प्रश्न है, और संभवतः इसका हल इतनी आसानी से निकलने वाला नहीं. जिनको इसका हल मिल गया, उनके जीवन की दुबिधा समाप्त हो गयी. लेकिन ऐसा आज तक बहुत कम लोगों के साथ
हुआ है. अस्तित्व को तलाशना असाध्य वीणा को बजाने
जैसा है. यहाँ सब बड़े-बड़े अहंकारी हार जाते हैं और जो खुद को उस किरीटी तरु को समर्पित कर देता
है, वह वीणा बजाने में सफल हो जाता है. यही अस्तित्व है. हम
किसी वाद्य यंत्र को देखते हैं. कहीं से क्या ऐसा प्रतीत होता है जो उसकी महता को
बताता हो. देखने में वह वाद्य धातु, लकड़ी या किसी से
भी निर्मित होता है. लेकिन उस वाद्य का अस्तित्व तो उससे निसृत होने वाली मधुर
ध्वनि से है और वह ध्वनि कोई अनाडी नहीं निकाल सकता. उसका स्पर्श करने से तो स्वर
भंग हो जाता है. लेकिन जब कोई साधक उसे बजाता है तो उस निर्जीव सी वस्तु से निसृत
स्वर हमें आनंद के सागर में डुबो देता है. अब वहां एक ऐसा वातावरण बना जिसने हमें
सोचने पर विवश कर दिया. साधक का अस्तित्व स्वर से जुड़ गया, और वाद्य का अस्तित्व साधक से जुड़ गया. वाद्य से मधुर ध्वनि निसृत हो
सकती है, लेकिन उसके लिए साधक चाहिए, अब साधक मधुर ध्वनि से वातावरण को सहज बना सकता है, लेकिन
उसे वाद्य चाहिए. दोनों का मकसद ध्वनि हो गया. साधक का भी और वाद्य का भी.
जब तक दोनों का तालमेल बना रहा, दोनों का अस्तित्व बना रहा, और जब किसी एक ने दुसरे की महता को कमतर आँका अस्तित्व तलाशने से महरूम हो
गए. जीवन जीने के आनंद से वंचित हो गए.
अस्तित्व के मामले में यही बात सभी पर लागू होती है. जिस तरह शरीर
आत्मा के बगैर, और आत्मा शरीर
के बगैर कोई पहचान नहीं रखते. लेकिन आत्मा के लिए शरीर का होना ही काफी नहीं है और
शरीर के लिए आत्मा का होना. दोनों की सत्ता एक दुसरे से भिन्न नहीं. दोनों का एक दूसरे
से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है. शरीर स्थूल है और आत्मा सूक्षम, शरीर क्षणभंगुर है और आत्मा कालातीत. आत्मा परमात्मा का अंश है, तो शरीर
प्रकृति का. लेकिन यह दोनों एक ही सत्ता के दो रूप हैं. किसी हद तक हम सोच सकते
हैं कि आत्मा के कारण शरीर का अस्तित्व है और शरीर के कारण आत्मा का. लेकिन जिस
अस्तित्व की बात में कर रहा हूँ यह अस्तित्व का अगला पड़ाव है , और जिसने इसकी पहचान कर ली वह सवंर गया.
हम खुद को नहीं खोज पाते, क्योँकि हम खुद को जकड देते हैं कभी भाषा में, कभी
जाति में, कभी धर्म में, कभी
मजहब में, और कहीं संसारिक रिश्तेदारियों में. निभाने
के तौर पर तो यह सब ठीक हैं, लेकिन हम खुद की पहचान इन्हें बना लें तो यह हमारे
लिए सही नहीं होगा. हम अपना अस्तित्व इन्हें मान लें तो बड़ी भूल हो जायेगी.
क्योँकि "जो दीसे सगल विनासे, ज्यों बादल की
छाहीं". जो कुछ हमारे सामने घटित हो रहा है वह सब नष्ट होने वाला है, और जो खुद ही एक दिन नष्ट हो जायेगा उसे हम अपना अस्तित्व कैसे मान लेंगे.
खुद के अस्तित्व को तलाशना है तो निर्लेप भाव से संसारिक दायित्वों को निभाते हुए, आत्मा को परमात्मा में स्थापित करते हुए जीवन की यात्रा को तय करें. बिना
किसी पूर्वाग्रह के, तब हम पायेंगे कि इस सृष्टि में जो
भी प्राणी हैं, वह हमसे गहरा रिश्ता रखते हैं और अगर हम ऐसा भाव बनाने में कामयाब
हो जाते हैं तो अपने अस्तित्व को स्थापित करते हुए हम उसे कायम रख पायेंगे.
इन लेखों की एक सुंदर पुस्तक बन सकती है
जवाब देंहटाएंस्वयं के होने का भाव.. सुन्दर विवेचन..
जवाब देंहटाएं@जो कुछ हमारे सामने घटित हो रहा है वह सब नष्ट होने वाला है, और जो खुद ही एक दिन नष्ट हो जायेगा उसे हम अपना अस्तित्व कैसे मान लेंगे?
जवाब देंहटाएंबड़ा जटिल प्रश्न है। सुन्दर आलेख!
दोनों की सत्ता एक दुसरे से भिन्न नहीं . दोनों का एक दुसरे से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है
जवाब देंहटाएं....सही विश्लेषण विचारणीय लेख के लिए बधाई
सांसारिक दायित्वों को निभाते हुए अपने अस्तित्व को स्थापित कर सके, सृष्टि के प्राणियों से रिश्ता जोड़ सके, तभी अपने इस अस्तित्व को कायम रख सकेंगे... उत्तम विचार
जवाब देंहटाएंगंभीर विषय पर एक सहज आलेख. मार्ग दर्शन हो रहा है हमारा...
जवाब देंहटाएंaapke vichar kafi prabhawit karte hain...
जवाब देंहटाएंखुद के अस्तित्व को तलाशना ...एक वीणा को सुर देने जैसा हैं ...आपकी बात में दम हैं
जवाब देंहटाएंसुरों के साथ संगम भी तभी संभव है जब आपके अंदर वो गुण विध्यमान हैं..कि आप कुछ सीखना चाहते हैं
और अस्तिव की तलाश ..इस जीवन में पूरी हो जाये ...ऐसी ही कामनाँ सब जीवो की ही रहती हैं ..जो बहुत गहराई से कुदरत या ईश्वर से जुड़े हैं ....उन्ही में ये तड़प ज्यादा देखी जा सकती हैं ....आभार
apne astitva ko dhundhne ke liye ek achchha aalekh:)
जवाब देंहटाएं" उतिष्ठ , जाग्रत, प्राप्यवरान्निबोधत " अर्थात..उठो ,जागो जो मिल रहा है उसे सम्पूर्णता से पा लो . यही अस्तित्व है..
जवाब देंहटाएंविचारणीय तथ्यों के साथ सार्थक व सटीक प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंwell written
जवाब देंहटाएंthoughtful question
स्वं को जानना और फिर उसे बचाए रखना..बेहतरीन,विचारणीय विवेचन है. श्रम साध्य लेखन कर रहे हैं.जारी रहे शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख
जवाब देंहटाएंएक गहन विषय पर सही और सटीक विश्लेषण... विचारणीय लेख ... बधाई
जवाब देंहटाएंयह प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है ।
जवाब देंहटाएंविचारणीय अच्छी प्रस्तुति,बेहतरीन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंnew post...वाह रे मंहगाई...
बढिया प्रेरक पोस्ट।
जवाब देंहटाएंआपकी किसी पोस्ट की चर्चा है नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 21/1/2012 को। कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें।
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन ..... स्वयं को समझना और सहेजना आसान नहीं, बेहतरीन विवेचन ....आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
बेहद सार्थक लेखन...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन विश्लेषण...
सादर.
कुमार आशीष की एक पंक्ति याद आ गयी..
जवाब देंहटाएंलोगों से मेरा एक ही रिश्ता है मगर लोग
रिश्तों में मुझे बांट के खुश हैं तो ठीक है
।
हमारी अस्मिता के पार जो हमारा जो अस्तित्व है, केवल राम जी, उसे कोई-कोई जानता है केवल..
खुद के अस्तित्व को तलाशना है तो निर्लेप भाव से संसारिक दायित्वों को निभाते हुए , आत्मा को परमात्मा में स्थापित करते हुए जीवन की यात्रा को तय करें ...
जवाब देंहटाएंYr nirlipt bhaav jeevan mein aa nahi paata ... jeevan bhar ka prayaas bhi safal nahi ho paata is bhaav ka ek ansh bhi lane ke liye ...
Saargarbhit post ....
ye hamesha se ek vichaniya vishay raha hain
जवाब देंहटाएंapani talaash
kuch logo ka kahna hain dhyan karo usse apane aap ko pehchano
koi ishwar ki bhakti karane ko kahta hain
to koi kahta hain mast jiyo
tarike alag par manzil ek
vicharniya post
sunder post ....hum kya hai . astitwa .....yeh sawal har baar hum khud se karte hai .......jabab alag -alag .
जवाब देंहटाएंacchi prastuti .....sunder discription ...........aapki post par aana sukhad raha .
सही और गंभीर विष्लेषण. एक विचारणीय लेख संग्रह श्रंखला. बधाई.
जवाब देंहटाएंNice Post. Nothing is immortal. So as soon as a person gets acquainted with the truth of life he has no fears.. no fears of death/ suffering.
जवाब देंहटाएंLive life, do what you like.... a very complex question indeed..
Congrats for the great post.
sundar sanyojan .....ak sakaratmk drishti .....badhai.
जवाब देंहटाएंअस्तित्व को सही मायनों में समझाता यह आलेख आपके चिंतन और दृष्टिकोण को सामने लाता है .
जवाब देंहटाएंबहुत संदर प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट " डॉ.ध्रमवीर भारती" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंGamheer chintan.
जवाब देंहटाएंShareer panch bhooton se nirmit hai.
prakrati ka ansh hai.
aatma 'sat-chit-aanand'parmaatma
ka ansh hai.
shareer vaahan hai aatma ki chetan
shakti chaalak hai.
keval bhai,bahut sundar lekhan hai
aapka.
aabhar.