सृजन मानव का स्वभाव है. यही
उसकी चेतना का प्रतिबिम्ब भी है. मानव मन-मस्तिष्क में चलने वाली हलचल,
भावनाओं और विचारों का अनवरत प्रवाह सृजन के माध्यम से बाहर की
दुनिया में प्रवेश करता है. जब तक सब कुछ हमारे मन-मस्तिष्क
में घटित हो रहा है, तक वह हमारा है. जैसे ही हमनें उसे अभिव्यक्त किया वह सबका हो गया. हमारी चेतना के मूल में सृजन
स्वभाव के रूप में स्थापित है. (स्वभाव के बारे में बात फिर कभी) और इसी का परिणाम है कि मानव अपने अस्तित्व में आने से लेकर निरंतर सृजन
में प्रवृत है. सृजन की उद्भट प्रतिभा ने उसे ‘सृष्टा’ के समकक्ष ला दिया. सृजन के मूल में उसकी भावना ने महती भूमिका अदा की.
अनवरत चिंतन और दनिया में कुछ नया करने के भाव ने उसे हमेशा जगाए रखा. प्रकृति उसकी पहली प्ररणा रही है और परमात्मा उसके जीवन का ध्येय. उसने सारी
प्रकृति को परमात्मा का प्रतिबिम्ब स्वीकार कर लिया और प्रकृति में ही उसने सृजन
के विविध आयाम खोजे. अगर हम संस्कृत वाङ्मय पर गहराई से ध्यान देते हैं तो यही पाते हैं. ‘ऋग्वेद’ के प्रत्येक मंडल में ऐसा बहुत
कुछ हमें देखने को मिलता है. जहाँ सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वर्षा आदि के लिए ऋचाएं वर्णित है. कालान्तर
में इन्हीं ऋचाओं का रूपांतरण मन्त्र के रूप में हुआ. हालाँकि ‘मन्त्र-तंत्र’ के लिए लिखित साहित्य को आज
तक साहित्य की कोटि में नहीं रखा गया है. लेकिन कहीं न कहीं पर इनकी प्रमाणिकता पर
भी ध्यान देने की जरुरत है. ‘मन्त्र–तंत्र’ के लिए लिखी गयी बातें सिर्फ उन्हीं
लोगों का विषय बनी रही हैं जिनका इससे सम्बन्ध रहता है. हालाँकि अब यह कहा जाता है
कि यह सब वैज्ञानिक नहीं है, और यह सब ढोंग है. लेकिन एक बात
बताता चलूँ कि 'विज्ञान जहाँ अपनी हद मान लेता है वहीँ से
अध्यात्म शुरू होता' है और उसका आज तक कोई अंत नहीं पा सका. सृजन भी एक अनन्त और अनवरत चलने
वाली प्रक्रिया है. समय और स्थिति का प्रभाव बेशक इस पर पड़ता है लेकिन यह
भावनात्मक रूप से एक सी रहती है. कालिदास के ‘अभिज्ञानशकुन्तलम’ में जिस प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है, उसी प्रेम को
आज तक विभिन्न रूपों में, विभिन्न शैलियों में विभिन्न देशों
और भाषाओँ के रचनाकारों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता रहा है, लेकिन
न तो कालिदास द्वारा अभिव्यक्त प्रेम पुराना पड़ा, और न ही
परवर्ती रचनाकारों द्वारा अभिव्यक्त प्रेम. इसीलिए यह बात हमें स्वीकार करनी
पड़ेगी कि सिर्फ भावनाओं को अभिव्यक्त करने के तरीके बदले हैं, लेकिन भाव तो शाश्वत है.
आचार्य भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र में भाव को लेकर बहुत कुछ वैज्ञानिक तरीके से अभिव्यक्त करने
का प्रयास किया गया है. भाव, विभाव, अनुभाव, संचारी आदि भावों को लेकर बहुत सटीक व्याख्याएं भरतमुनि के बाद के आचार्यों ने प्रस्तुत की हैं. भट्ट लोल्लट, भट्ट शंकुक, भट्ट नायक और अभिनवगुप्त इस सिद्धांत को आगे बढाने का काम करते हैं और काफी हद तक विषद विवेचन के आधार पर अपनी मान्यताओं को पुष्ट करते हुए भाव और उसके अंगों को पुष्ट करने का प्रयास करते हैं और यह भी समझाने की कोशिश करते हैं कि काव्य में क्या जरुरी है. हालाँकि उनके इस सिद्धांत पर कई पोस्ट्स लिखी जा सकती हैं, और आदरणीय मनोज जी के ब्लॉग मनोज पर आपको यह जानकारी सहज मिल सकती है. सृजन के सन्दर्भ में इसी तरह की मान्यता पाश्चात्य विचारक प्लेटो ने भी अभिव्यक्त की है. काव्य के सन्दर्भ में अपनी मान्यता को अभिव्यक्त करते हुए प्लेटो कहता हैं कि ‘काव्य प्रकृति की अनुकृति है’. हालाँकि बाद में प्लेटो की इस मान्यता का खंडन उनके शिष्य अरस्तु करते हैं और यह कहते हैं कि ‘काव्य प्रकृति की अनुकृति नहीं, बल्कि उसकी प्रतिकृति है’. यहाँ अनुकृति और प्रतिकृति शब्दों ने एक दुसरे में भेद कर दिया और एक ही विषय पर दो सिद्धांत प्रचलन में आ गए. इससे भी यह स्पष्ट होता है कि सृजन के मूल में प्रकृति की महता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. भरतमुनि ने जो मंतव्य अपने नाट्यशास्त्र में रस के सम्बन्ध में अभिव्यक्त किया है, उसी तरह के भाव मुझे अरस्तु के विरेचन सिद्धांत में देखने को मिलते हैं, और कभी-कभी मुझे इन दोनों आचार्यों की काव्य के सन्दर्भ में लगभग एक सी मान्यताओं ने ( रस और विरेचन के सम्बन्ध में ) आश्चर्यचकित किया है. भारतीय और पाश्चात्य आचार्यों ने काव्य की सार्थकता, उसकी उपयोगिता, सृजन की प्राथमिकता को लेकर व्यापक बहस की है, और कुछ सार्थक निष्कर्ष भी निकाले हैं. उनके यह निष्कर्ष आज सिद्धांत के रूप में मान्यता प्राप्त है, और उन्हीं के आधार पर समस्त साहित्य रचना हो रही है. हालाँकि समय -समय पर इनमें भी बदलाव आया है, यह बदलाव पूर्व प्रचलित मान्यता को खंडित तो करता है, लेकिन उसकी उपयोगिता को नजरअंदाज नहीं करता, और यही सार्थक बहस से ही संभव हो सकता है.
का प्रयास किया गया है. भाव, विभाव, अनुभाव, संचारी आदि भावों को लेकर बहुत सटीक व्याख्याएं भरतमुनि के बाद के आचार्यों ने प्रस्तुत की हैं. भट्ट लोल्लट, भट्ट शंकुक, भट्ट नायक और अभिनवगुप्त इस सिद्धांत को आगे बढाने का काम करते हैं और काफी हद तक विषद विवेचन के आधार पर अपनी मान्यताओं को पुष्ट करते हुए भाव और उसके अंगों को पुष्ट करने का प्रयास करते हैं और यह भी समझाने की कोशिश करते हैं कि काव्य में क्या जरुरी है. हालाँकि उनके इस सिद्धांत पर कई पोस्ट्स लिखी जा सकती हैं, और आदरणीय मनोज जी के ब्लॉग मनोज पर आपको यह जानकारी सहज मिल सकती है. सृजन के सन्दर्भ में इसी तरह की मान्यता पाश्चात्य विचारक प्लेटो ने भी अभिव्यक्त की है. काव्य के सन्दर्भ में अपनी मान्यता को अभिव्यक्त करते हुए प्लेटो कहता हैं कि ‘काव्य प्रकृति की अनुकृति है’. हालाँकि बाद में प्लेटो की इस मान्यता का खंडन उनके शिष्य अरस्तु करते हैं और यह कहते हैं कि ‘काव्य प्रकृति की अनुकृति नहीं, बल्कि उसकी प्रतिकृति है’. यहाँ अनुकृति और प्रतिकृति शब्दों ने एक दुसरे में भेद कर दिया और एक ही विषय पर दो सिद्धांत प्रचलन में आ गए. इससे भी यह स्पष्ट होता है कि सृजन के मूल में प्रकृति की महता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. भरतमुनि ने जो मंतव्य अपने नाट्यशास्त्र में रस के सम्बन्ध में अभिव्यक्त किया है, उसी तरह के भाव मुझे अरस्तु के विरेचन सिद्धांत में देखने को मिलते हैं, और कभी-कभी मुझे इन दोनों आचार्यों की काव्य के सन्दर्भ में लगभग एक सी मान्यताओं ने ( रस और विरेचन के सम्बन्ध में ) आश्चर्यचकित किया है. भारतीय और पाश्चात्य आचार्यों ने काव्य की सार्थकता, उसकी उपयोगिता, सृजन की प्राथमिकता को लेकर व्यापक बहस की है, और कुछ सार्थक निष्कर्ष भी निकाले हैं. उनके यह निष्कर्ष आज सिद्धांत के रूप में मान्यता प्राप्त है, और उन्हीं के आधार पर समस्त साहित्य रचना हो रही है. हालाँकि समय -समय पर इनमें भी बदलाव आया है, यह बदलाव पूर्व प्रचलित मान्यता को खंडित तो करता है, लेकिन उसकी उपयोगिता को नजरअंदाज नहीं करता, और यही सार्थक बहस से ही संभव हो सकता है.
सूचना तकनीक के विकास के इस
दौर में अभिव्यक्ति और सृजन के साधनों का भी विकास होता रहा .सृजन की विधाएं अनन्त
हैं. लेखन उनमें से एक है. कभी
पत्थरों पर लिखा गया तो कभी भोजपत्रों पर. लेखन का इतिहास सृजन के इतिहास से ही
जुड़ा है. लेखन पर भी विकास का प्रभाव पड़ा. कभी शैली तो कभी भाव पर और यह विकास
निरंतर जारी है. इन्हीं विकास के पडावों को पार करते हुए हमने इन्टरनेट की दुनिया में प्रवेश किया.
इन्टरनेट ने दुनिया को एक क्लिक तक सीमित कर दिया और अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप
में हमें एक नायाब तोहफा दिया ‘ब्लॉगिंग’. आज दुनिया
के तमाम लोग तरह-तरह के माध्यमों से एक-दुसरे से जुड़ रहे है. मानवीय भावनाओं को
अभिव्यक्ति के नए साधन मिले हैं, इन साधनों ने मनुष्य में
रचनाशीलता का जो संचार किया है वह कभी-कभी सोचने पर मजबूर करता है. ब्लॉगिंग भी
मनुष्य की रचनाशीलता को अभिव्यक्त करने के एक सशक्त माध्यम के रूप में आज हमारे
सामने है. ब्लॉगिंग की दुनिया अद्भुत है. रचनाशीलता का
यहाँ व्यापक प्रसार है. एक ही मंच पर सब कुछ अभिनीत किया जा रहा है और दर्शक दांतों
तले अंगुली दवाने पर मजबूर है. हालाँकि ब्लॉगिंग का
अपना एक स्वभाव है,
उसकी अपनी एक प्रकृति है (यह विषय फिर कभी) इन सभी के बाबजूद ब्लॉगिंग करने के लिए कुछ बाते निर्धारित की जा सकती हैं. जिनके आधार पर
हम सफल ब्लॉगिंग की और बढ़ सकते हैं. शेष अगले अंकों में....!!!
अच्छा विमर्श!
जवाब देंहटाएंbahut sundar
जवाब देंहटाएंbadhia post
जवाब देंहटाएंkafi acchi tarah se aapane baato ko samjhaya
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकल 15/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है !
क्या वह प्रेम नहीं था ?
धन्यवाद!
केवल राम जी, बड़ी वृहत जानकारी आपने प्रस्तुत की है.. एक ज्ञानवर्धक श्रृंखला!!
जवाब देंहटाएंविस्तृत ज्ञानवर्धक आलेख...
जवाब देंहटाएंसादर.
बहुत सुंदर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंसही दिशा में चल रहे हैं आप ..सुन्दर विमर्श और सार्थक लेखन.केरी ऑन.
जवाब देंहटाएंगहन अध्यन के बाद किया गया विवेचन . कुछ जगहों पर वर्तिका की संपादन छुट गया है
जवाब देंहटाएं' विज्ञान जहाँ अपनी हद मान लेता है वहीँ से अध्यात्म शुरू होता ' है और उसका आज तक कोई अंत नहीं पा सका..... .
जवाब देंहटाएंबृहद ज्ञान वर्धक आलेख, सही दिशा , .... आभार.
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति. ... आज के समय में ब्लागिंग की सार्थकता से इंकार नहीं किया जा सकता है. अपनी बात कहने का ये महत्वपूर्ण साधन है,,,,
जवाब देंहटाएंप्रयोग प्रवाह में है..बहुत सुन्दर विवेचना...
जवाब देंहटाएंभोजपत्र से...ब्लॉग तक..
जवाब देंहटाएंसार्थक लेख...अगले की प्रतीक्षा में..
@ ब्लॉगिंग का अपना एक स्वभाव है , उसकी अपनी एक प्रकृति है
जवाब देंहटाएंब्लागिंग का स्वभाव और प्रकृति की सीमा व्यापक है, निर्धारित करना कठिन जान पड़ता है, क्रमशः की प्रतीक्षा है.
sarthak bahas
जवाब देंहटाएंब्लॉगिंग में बेहतर सम्भावनायें है !
जवाब देंहटाएंअच्छा विमर्श !
सुंदर विवेचन ......ऐसे विचार यक़ीनन ब्लॉग्गिंग की रचनाशीलता को नयी दिशा देंगें......
जवाब देंहटाएंWah bhai Keval ji bahut hi sundar dhang se rochakata ke sath mahtvpoorn prastuti hai ...sadar badhai.
जवाब देंहटाएंkewal bhai.. kitna mehnat karte ho aap:).. achchhe vichar!!
जवाब देंहटाएंबहुत सारगर्भित आलेख लिखा है आपने!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बहुत सही ..
जवाब देंहटाएंअगले आलेखों का इंतजार रहेगा !!
ज्ञान का पिटारा खोल दिए हैं केवल राम जी सार्थक पोस्ट | धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंबहुत सारगर्भित आलेख...
जवाब देंहटाएंमैं ब्लॉगिंग की दुनिया में एकदम नया हूँ। आपका ब्लॉग देखा। बेहद पसंद आया। बहुत ही सुंदर विचार और उनका संयोजन। बधाई और शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंlekhan sarahniye hai ,badhiya post
जवाब देंहटाएंविस्तृत ज्ञानवर्धक आलेख...
जवाब देंहटाएंअच्छी और सारगर्भित जानकारी|
जवाब देंहटाएंज्ञान वर्धक आलेख,
जवाब देंहटाएंयह आलेख सार्थक ब्लॉगिंग का अच्छा नमूना है।
जवाब देंहटाएंबढिया चर्चा की शुरूआत......
जवाब देंहटाएंस्पष्ट सार्थक
जवाब देंहटाएंसुंदर विवेचना! सृष्टि, मानव सृष्टि पर आपकी दृष्टि के हम कायल हुए! अगली कड़ी की प्रतीक्षा है...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
अच्छी जानकारी से भरपूर पोस्ट । अगली कडी का इन्तज़ार है ।
जवाब देंहटाएंसाइकोलोगिकल अध्यन है इस विषय का ... सार्थक लेख ...
जवाब देंहटाएं