भ्रष्टाचार को मिटाने की आस लिए जनता की आँखों की चमक बढ़ रही
है ...अब तो सब सही होकर ही रहेगा ....इतने में फिर दृश्य बदल जाता है ....! गतांक से आगे
एक तरफ
भ्रष्टाचार पर बात हो रही थी और लोग हैं कि फिर इसी का सहारा ले रहे हैं. भीड़ बढ़ रही है लेकिन वहां जो भी व्यक्ति हैं सबके सब अपने स्वार्थों से जुड़े
हुए हैं. किसी को देश कि चिन्ता नहीं है. सबका अपना-अपना
नज़रिया है इस क्रान्ति के पीछे, कोई व्यक्तिगत प्रभाव
से आया है तो किसी को घूमने की फुर्सत मिल गयी हो जैसे, कोई इस आन्दोलन में शामिल
होकर अपना रुतवा कायम करना चाहता हो जैसे. यहाँ जितने
लोग हैं बेशक उनका मंच एक है लेकिन मंतव्य सबके अलग-अलग हैं.
मैंने बड़ी गहराई से देखा कि जो लोग मंच पर आसीन हैं जो भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए अनशन पर बैठे हैं वह भी कहीं न कहीं पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं. कहीं न
कहीं पर उनके जहन में भी देशभक्त होने का भाव है . गौरव
से उनकी गाथा लिखी जाए यह सोच भी वह रखते हैं . इतिहास
को बदलने की मादा रखते हैं और जब वह मुंह खोलते हैं तो
ऐसा लगता है कि सकारात्मक बातें इन्हें करनी ही नहीं आती और लोग हैं कि इनकी बातों पर ताली पीटते हैं और इनका उत्साह बढाते हैं. बस यही संतोष
इनके मन मैं है और 121 करोड़ की आबादी वाले इस देश के दस-पंद्रह हजार
व्यक्ति इनके साथ हो लिए तो उसे यह बड़ी सफलता मान रहे हैं और उस भीड़ को देखा तो वहां कोई भी सच्चा देशभक्त नजर नहीं आया. मैं बड़ा असमंजस की स्थिति
में हूँ, मंच जैसे रंगमंच हो गया हो. जहाँ एक ही पात्र
आता है लेकिन हर बार उसकी भाषा बदल जाती है और और उसका अभिनय भी......मैंने देखा
कुछ लोग मेरी चुप्पी को भांप जाते हैं और उनकी नजरें मुझ पर टिक जाती हैं. मैं
थोडा सा खुद सँभालने की कोशिश करता हूँ. लेकिन
उन्हें लगता है कि मैं कोई जासूस हूँ. एक पूर्ण भारतीय को वह शक की नजर से देखते
हैं. हा..हा..हा..!
इतने में
एक नया नजारा मेरी आँखों के सामने आता है. सामने से भीड़ आ रही है और सारा पंडाल नारों से गूंज रहा है. भारत माता की जय...वन्दे मातरम्, एक संत देश बचाने निकला है...ऐसे नारे लग ही रहे थे कि...एकव्यक्ति आता है
वह कहता है ...एक संत देश चबाने निकला है ....बस
फिर क्या था? भ्रष्टाचार पर भाषण देनेवालों को किसी को
गाली देना भ्रष्टाचार नहीं लगता. वह देश को गाली देते हैं, देश की जनता के प्रतिनिधियों को गाली देते हैं, देश के लोगों की खिल्ली उड़ाते हैं. उन्हें उनका चुनाव गलत लगता है. जो
व्यवस्था आज है वह किसी भी तरीके से सही नहीं है, पता नहीं कौन सी व्यवस्था लाना चाहते हैं.
बातें बड़ी-बड़ी करते हैं और संभवतः बात करना मूर्खों के
लिए आसान होता है, और जिम्मेवार बात करने से पहले सोचता
है और जब वह कोई निर्णयलेता है तो उसे निभाने की पूरी क्षमता रखता है. लेकिन मैं
इस व्यक्ति को देखकर हैरान हूँ. मैदान छोड़कर भागना कोई
इनसे सीखे....आज तो भगवे वस्त्र धारण किये हैं लेकिन
वेश बदलना इन्हें अच्छे से आता है. आखिर संत जो ठहरे यहाँ संतों की शक्ति में बड़ा विश्वास किया है. सच को सच साबित
करने के लिए हमारे देश के संतों ने जलते हुए तवे पर भी
परीक्षा दी, दीवारों में भी चिनवा दिया तो कोई परवाह नहीं की लेकिन अपने लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटे.
लेकिन यह संत ऐसे हैं कि समय आने पर इन्हें तलवार उठानी चाहिए थी, क्योँकि गुरु गोबिंद सिंह जी ने यही किया था,
इन्होंने एक नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया....जब सांस खतरे में हो तो तलवार
नहीं-सलवार उठा लो, और फिर भाग जाओ मैदान छोड़ कर, लक्ष्य गया भाड़ में बस खुद का बचाव कर लो और फिर कह दो कि हमें मारने की साजिश रची गयी थी और हम हैं
कि बच निकले...जो लोग देशभक्तों की बातें करते नहीं थकते उनके आदर्शों की चर्चा
करते नहीं थकते वह आज इस तरह से भाग निकले ....समझ नहीं आया ..जिन्होंने देश से
सच्चा प्रेम किया उन्होंने अपने कर्मों द्वारा ऐसे सिद्धान्त प्रतिपादित किये कि
आज हम उनका अनुसरण करते हैं. उन्होंने सिद्धान्तों
की चर्चा नहीं की लेकिन जीवन ऐसा जिया कि हर कर्म सिद्धान्त बन गया. मैं ऐसा
विश्लेषण कर ही रहा हूँ और आगे बढ़ रहा हूँ.....! मैं
कभी वर्तमान को देख रहा हूँ तो कभी भूत को याद कर रहा हूँ ...ऐसे लग
रहा है कि मैं दो नावों में सवार हो गया हूँ और भूतकाल की नाव मुझे ज्यादा
गौरवान्वित कर रही है और इतने में मैं उस भीड़ से उठ खड़ा होता हूँ. सब मेरी तरफ
देखते हैं. मैं मंच पर जाने की कोशिश करता हूँ लेकिन मुझे रोक दिया जाता है. मेरी
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहीँ छिन जाती है, जिस
मंच से हर प्रकार की स्वतंत्रता की बात की जा रही है.
इतने में फिर दृश्य बदल जाता है..........एक सूनापन....मेरे सामने
है. मैं सोच रहा हूँ अब क्या किया जाए....मैं खुद असमंजस की स्थिति में हूँ...सारे
देश की जनता गुमराह है. बुद्धिजीवी अपने तरीके से विश्लेषण कर रहे हैं, नेताओं का अपना नज़रिया है. प्रशासनिक
अधिकारी अपना दिमाग लगा रहे हैं उन्हें अभी भी अपनी लाभ हानि नजर आ रही है.
पत्रकार असमंजस में है, किसे खबर बनाएं. क्या कहें, क्या लिखें...इधर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपनी टीआरपी की भी चिन्ता है. सब
अपना-अपना लाभ सोच रहे हैं, सब अपना एक सुरक्षित
किनारा तलाश रहे हैं जहां यह चैन से भी रह सकें और तमाशा भी कर सकें. यह बात मेरी समझ से बाहर है. मेरी बुद्धि मुझे झिनझोड़ती है और फिर मुझसे
सवाल करती है??? कब तक तुम इस तरह तमाशा देखते रहोगे, आखिर जब तुम सब सच-सच जानते हो तो क्योँ झिझक रहे हो? सच को जनता के सामने ला दो. मैं अपने अंतर्मन की आवाज को सुनता हूँ और
जहां मैं खड़ा हूँ वहीँ से सामने वाली जनता को पुकारता हूँ.....भारत माता की जय.....सब
मेरे जय घोष में शामिल होते हैं.....मैं मंच पर बैठे लोगों से आहवान करता हूँ कि
मुझे थोडा सा वक़्त दिया जाये एक आम नागरिक होने के नाते ताकि मैं अपनी भावनाएं जो
विशुद्ध रूप से देश प्रेम के कारण मेरे जहन में उठ रहीं हैं उन्हें आप सबके साथ
सांझा कर सकूँ.....फिर मैं जनता को संबोधित करता हूँ.....! लेकिन मेरा संबोधन अलगे अंक में ...!
बहुत ही रोचक स्वप्न..
जवाब देंहटाएंइस देश के आम आदमी के मन की हलचल भी कुछ ऐसी ही है..... रोचक ,विचारणीय
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