आजादी
का अगर सीधा सा अर्थ किया जाए तो इस मतलब होगा अपनी व्यवस्थाओं में जीना,
लेकिन जिस भारत की आजादी का जश्न हम बड़े हर्षोल्लास से मनाते हैं
(यह तो होना भी चाहिए) उसमें अगर हम आज तक के
(66 वर्षों) समय को गहराई से विश्लेषित करें तो पूरी सच्चाई एकदम स्पष्ट
रूप से सामने आती है कि आजादी के बाद हम कोई ऐसी व्यवस्था कायम नहीं कर पाए जो
हमारे देश के अनुकूल हो, बल्कि पिछले 15-20 वर्षों से तो
हमने अपने प्रयासों को और तेज कर दिया है कि हम कितनी विदेशी व्यवस्थाएं इस देश
में लागू कर पाते हैं और हम पुरजोर इसी कोशिश में हैं. फिर यह आजादी कैसी यह एक
बड़ा प्रश्न है ? गतांक से आगे
वर्तमान
आजादी के दौर को समझने से पहले हमें अपने देश के इतिहास पर नजर डालने की जरुरत है.
अगर आज तक के उपलब्ध इतिहास का विश्लेषण करते हैं तो इस देश की एक उच्च सांस्कृतिक,
सामाजिक और अध्यात्मिक परम्परा रही है. इस देश के ही एक समय में
विश्व गुरु का दर्जा दिया जाता था. यह वही भारत है जो विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र
में दुनिया के तमाम देशों को राह दिखा रहा था, दुनिया के देश
अभी ढंग से अपने जीवनयापन के साधनों की तलाश भी नहीं कर पाए थे और इस देश के लोग
अआत्मिक चिंतन की तरफ प्रवृत थे, भौतिक सुख सुविधाओं से
संपन्न इस भारत के लोग पूरी दुनिया में शांति और संतोष के अग्रदूत बनकर उभरे थे,
आज भी कई ऐसे प्रमाण हमारे सामने हैं, जिनके
आधार पर हम इन सब बातों के तथ्यात्मक रूप से कह सकते हैं और प्रमाणित कर सकते हैं.
यह भारत के इतिहास का एक पहलू है, मुगलों का शासन जब इस देश
में स्थापित हुआ तो भी यहाँ संस्कृति और सभ्यता का विकास होता रहा, लेकिन अंग्रेजों की गुलामी ने इसे गहरे गर्त में धकेल दिया. हालाँकि
मुगलों के शासन के दौरान भी इस आर्यवर्त की सभ्यता और संस्कृति के साथ काफी खिलवाड़
किया गया, उन्होंने भी इस देश को जमकर लूटा, यहाँ पर शासन व्यवस्था कायम की और इस देश को अपने तरीके से चलाने का भरपूर
प्रयास किया, लेकिन अंग्रेजों ने तो इस देश को ऐसे कगार पर
ला खड़ा किया जहाँ से इस देश का हर प्रकार से पतन होना शुरू हुआ. आर्यवर्त दुनिया
को शांति का सन्देश देता रहा है और यह अंग्रेजी शासक कलुषित मासिकता के कारण पूरी
दुनिया में व्यक्ति के साथ छल, कपट और धोखे के लिए मशहूर रहे
हैं और संभवतः आज भी इनके हालात ऐसे ही हैं.
खैर
भारतीयों को जब अंग्रेजी शासन में घुटन महसूस होने लगी तो उन्होंने आजादी का बिगुल
बजा दिया. 10
मई 1857 को भारतीय आजादी की क्रांति का शंखनाद मेरठ से हुआ,
इस आन्दोलन ने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिलाकर रख दीं, असंगठित आन्दोलन होने के कारण अंग्रेज इसे दबाने में बेशक सफल रहे हों,
लेकिन स्वतंत्रता के लिए जल चुकी चिंगारी को बुझाने में वह कामयाब
नहीं हो सके और रह रहकर उनके खिलाफ आन्दोलन होते रहे और अंततः 90 वर्षों के कठोर
संघर्ष के बाद भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ. लेकिन इस देश के दो टुकड़े हो गए,
भारतीयों को लगा कि वह अपने मकसद में कामयाब हो गए लेकिन यह सिर्फ
एक कल्पना थी. हमने अगर आजादी अगर प्राप्त की तो वह कानून के माध्यम से प्राप्त
हुई. दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो जो अंग्रेजों की गुलामी से स्वतन्त्र हुआ
हो और उसे कानून बनाकर आजादी दी गयी हो. इतना ही नहीं अंग्रेज जिस मकसद को हासिल
करना चाहते थे वह अंत में उस मकसद को हासिल करने में भी कामयाब हो गए. एक देश के
दो टुकड़े कर गए और ऐसी भावना भर गए कि आज उसके गंभीर परिणाम हमें भुगतने पड़ रहे
हैं और आने वाले समय में भी कमोबेश यह स्थिति जारी रहेगी.
यह
तो आजादी का एक पहलू है, भारत में आजादी के
बाद क्या कुछ परिवर्तन आया उसे पुरे सन्दर्भ में अगर देखा जाए तो स्थिति बहुत
नाजुक सी लगती है और कई बार मन यह सोचकर उदास हो जाता है कि हम कैसे आजाद भारत में
रह रहे हैं. कोई भी ऐसा पक्ष नहीं जो हमें महसूस करवा सके कि हम आजादी में जी रहे
हैं. आज भी हम उस गुलाम मानसिकता से नहीं उभर पाए हैं, इसलिए
हम अपने कार्यक्रमों और नीतियों का निर्धारण भी विदेशी हितों के अनुकूल करने लगे
हैं. बड़े व्यापक पैमाने पर अगर हम अपने देश कि स्थितियों का विश्लेषण करें तो यहाँ
की चाहे राजनीतिक स्थिति हो या आर्थिक स्थिति सब कुछ अब भी विदेशी नीतियों पर
निर्भर करता है तो फिर आजादी कहाँ और कैसी आजादी? हम आजादी
के बाद कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बना पाए जो हमारे देश के अनुकूल हो, जो हमारी संस्कृति, सभ्यता, समाज,
धर्म को संरक्षित कर सके और इस देश की जनता को यह अहसास दिला सके कि
जो कुर्बानियां उनके पूर्वजों ने की हैं उनका लाभ उन्हें मिल रहा है, उनकी कुर्बानियां देश और समाज के लिए लाभदायक साबित हुई हैं. लेकिन ऐसा
किसी स्तर पर महसूस नहीं होता तो फिर आजादी पर ही एक आत्मचिंतन करने की जरुरत पड़
जाती है.
हम
किस तरह की आजादी चाहते हैं और क्योँ? यह
एक बड़ा सवाल है और इस सवाल का उत्तर जिसे भी खोजना होगा उसे पहले अपनी सभ्यता और
संस्कृति को समझना होगा. समाज की संरचना और धर्म के नियमों का अध्ययन करना होगा और
वह भी सापेक्ष दृष्टि से और तब जो निष्कर्ष हमारे सामने आयेंगे वह हमें निश्चित
रूप से यह अहसास तो दिला ही देंगे कि आजादी होती क्या है ? और
जब हमें वैसी वास्तविक आजादी का अहसास होगा तो फिर हम निर्णय कर पायेंगे कि हमें
अभी कितना सफ़र तय करना है और हमारी मंजिल कितनी दूर है और फिर उस दूरी को भांपते
हुए यह भी निर्णय करना होगा कि हम उस मंजिल तक पहुँच पायेंगे या नहीं, अगर पहुंचना है तो फिर किस तरह से और कब हम पहुंच सकते हैं.
आजादी
सिर्फ एक शब्द नहीं है, यह एक भाव है,
एक व्यवस्था है, एक जीवन पद्धति है, लेकिन क्या हमारे देश में या दुनिया में कहीं ऐसा है, मुझे बहुत कम मात्रा में ऐसा देखने को मिला कि कोई व्यक्ति उस आजाद सोच से
जीता है, जिसकी मनुष्य से अपेक्षा की जाती है. हम अपने आस
पास ही देख लें, विज्ञान और तकनीक की इतनी उन्नति होने के
बाबजूद भी हमारे मनों में ऐसी दीवारें हैं जो आजतक हमें उसी गर्त में धकेले हुए
हैं जहाँ पर हम आज से दो-तीन सौ वर्ष पहले थे. कहाँ हम जाति-पाति के भेद को मिटा
पाए हैं, कहाँ हम मंदिर-मस्जिद को एक समझते हैं, कहाँ हम हिन्दू, मुस्लमान, सिक्ख,
ईसाई आदि के दायरों से बाहर निकलकर इंसानियत का भाव कायम कर पाए
हैं. कहाँ हमें सबकी बोली प्यारी लगती है, कहाँ हमें किसी के
खान पान, रहन सहन से नफरत नहीं होती, कहाँ
पर हम साम्प्रदायिकता का शिकार नहीं हैं, हमें कब लगता है कि
इको नूर ते सब जग उपज्या, कौण चंगे ते कौण मंदे, जब हमें ऐसा कुछ आभास होता ही नहीं है तो फिर
हम इसे कर्म रूप में कैसे देखने की कोशिश करते हैं. अभी हमें आजादी पर गहन
आत्मचिंतन करने की जरुरत है, हर एक उस देशभक्त की कुर्बानी
को याद करके उसकी महता को समझने की जरुरत है, तभी कहीं हम एक
आजादी वाला वातावरण कायम कर पायेंगे....लेकिन ऐसा वातावरण सिर्फ सोचा जा सकता है,
इस पर विचार किया जा सकता है, क्रियात्मक रूप
में ऐसा जब संभव हो जाएगा तो निश्चित रूप से धरती से सुंदर और कोई जहान नहीं होगा, फिर शायद व्यक्ति जिस काल्पनिक स्वर्ग की कल्पना करता आ रहा है उसे भी
करना छोड़ देगा एक आजाद सोच के साथ जीवन व्यतीत करेगा और जब इस दुनिया से रुखसत
होगा एक आजादी से भरा वातावरण इस दुनिया को दी जाएगा.
अभी भी जो स्वतन्त्रता है, वह पूर्ण कहाँ, मन तो लड़ता ही रहेगा जब पूरी तरह स्वतन्त्र हो जायेगा।
जवाब देंहटाएंसम की सोच जाने कब उपजेगी.....
जवाब देंहटाएंसमता बिना कैसी आज़ादी। लेकिन समता आये तो कैसे। सब दिखावा है।
जवाब देंहटाएंअगर येअही स्वतंत्रता है तो इसे फिर से पाना होगा ... अब अपने बनाए हुए तंत्र से पाना होगा ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - बुधवार - 11/09/2013 को
जवाब देंहटाएंआजादी पर आत्मचिन्तन - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः16 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
सार्थक पोस्ट .....विचारणीय
जवाब देंहटाएंआजादी को सही अर्थों में आने ही कहाँ दिया ? संविधान में समकालीन हालातों देखते हुए वर्ग के अनुरूप प्रगति के रस्ते सोचे थे लेकिन वो तो राजनीती के लोलुप नेताओं के हथियार बन चुके हैं और समता वो तो कभी मिल ही नहीं सकती है. अपनी सोच बदलें और समता के रस्ते पर चलने वालों को आगे लाकर साथ दें तो वर्षों बाद आज़ादी की उस परिकल्पना को सार्थक किया जा सकने की बात सोच सकते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंHow to change blogger template
आज़ादी के इतने सालों बाद भी मन में एक संशय की स्थिति बनी हुई है ...कि क्या है वो सची आज़ादी जिसका सपना हर भारतवासी ने देखा था ?????
जवाब देंहटाएं