27 जनवरी 2014

आत्महत्या पर आत्मचिन्तन...2

हालाँकि जहाँ तक आत्मा की बात है उस विषय में हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह ही सम्पूर्ण ब्रह्मंड में फ़ैली चेतना का ही एक रूप है. गतांक से आगे ....!!! 

यह आत्मा इस चेतन सत्ता का ही प्रतिरूप है, दूसरे शब्दों में ऐसा भी कह सकते हैं कि यह आत्मा इस
पांच तत्व
परमसत्ता का ही एक अंश है और यह विभिन्न योनियों के माध्यम से क्रियाशील है. मनुस्मृति के बाहरवें अध्याय में इस बात को यूं स्पष्ट किया गया है : “आत्मैव देवता: सर्वा: सर्व मात्मन्यवस्थितम्/आत्मा ही जनयत्येषां कर्मयोगं शरीरिणाम्”. (120/12/481) अर्थात समस्त देवता आत्मा में ही हैं, सब कुछ आत्मा में ही स्थित हैं. आत्मा ही शरीरधारी जीवों को कर्मयोग द्वारा उत्पन्न करता है. इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती हैं कि जो कुछ भी क्रियाशील है उसमें आत्मा की सत्ता निश्चित रूप से विद्यमान है, और यही आत्मा “एष सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभि:/ जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत्” (मनुस्मृति :125/12/481) पंचमहाभूतों के रूप में सभी जीवों के शरीरों में रहते हुए जन्म, विकास और क्षरण की क्रियाओं द्वारा संसार को चक्रवत् निरंतर घुमाता रहता है. यहाँ एक बात और भी स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि इस पूरी सृष्टि का निर्माण पांच (आकाश, वायु, जल, पृथ्वी) तत्वों से हुआ है. सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया और इसके विभिन्न रूपों के निर्माण में यह पांच तत्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. जब भी किसी सत्ता का निर्माण होता है तो वह इन तत्वों के द्वारा ही होता है, और जब भी कोई सत्ता रूप बदलती है (जिसे हम मृत्यु कहते है) तो वह भी इन्हीं पांच तत्वों में समा जाती है. हालाँकि इसे हम प्रकृति कहते हैं, लेकिन चेतना के कारण यह प्रकृति भी हमें चेतन प्रतीत होती है. फिर भी इस चेतन सत्ता को हम अन्तर्यामी नहीं कह सकते. बेशक यह परमात्मा का ही अंश है. इस सन्दर्भ में श्रीकृष्ण जी अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि “ आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:/आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेड न चैव कश्चित्”. (29/02/78) अर्थात कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, तथा कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते. इसलिए यह आत्मा और परमात्मा दोनों कभी-कभी बहुत गूढ़ लगते हैं और कभी-कभी आत्मा को ही परमात्मा मान लिया जाता है. लेकिन दोनों बेशक एक दूसरे के पूरक हैं, फिर भी दोनों की सत्ता अलग है. वेदान्त दर्शन में इसे इस तरह बताया गया है : “शारीरश्चोभयेऽपि हि भेदेनैनमधीयते”. (1/2/20/42) अर्थात शरीर में रहने वाला जीवात्मा भी अन्तर्यामी नहीं है, लेकिन वह इस परमसत्ता का अंश है, इसलिए वह इस शरीर (इस शरीर से सीधा सा तात्पर्य है : मनुष्य शरीर) में रहते हुए इस सत्ता के गुणों को धारण कर सकता है. 

इससे यह बात सिद्ध होती है कि आत्मा रूपी सत्ता, परमात्मा का अंश होने के कारण उसकी विशेषताओं से पूरी तरह सराबोर रहती है. लेकिन फिर क्योँ किसी के देह त्यागने के बाद उसे मृत कहा जाता है? यह बहुत गम्भीर प्रश्न है. जबकि सभी धर्मग्रन्थ इस बात को स्वीकार करते हैं कि देह की सत्ता नश्वर है, आत्मा की नहीं. ऐसी स्थिति में  जिसे हम मृत्यु कह रहे हैं, उस पर विचार करना आवश्यक हो जाता है और क्या मृत्यु के बाद फिर जीवन होता है, यह भी गम्भीर विषय है. लेकिन गीता में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि आत्मा सिर्फ शरीर बदलती है : “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्वति नरोऽपराणि/तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही”. (22/02/72) अर्थात जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों तो त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है. नए भौतिक शरीरों के धारण करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आत्मा जब किसी शरीर को छोडती है तो उसके बाद उसे फिर एक नया शरीर मिलता है और उस शरीर के मिलने में उसके कर्म की भूमिका बहुत बड़ी होती है. इसलिए हम यह कह सकते हैं कि ‘परलोक’ और ‘पुनर्जन्म’ का माध्यम मृत्यु है. एक लोक के रस से संचित विलक्षण शरीर-इन्द्रिय आदि का त्याग मृत्यु है और अन्य लोक में संचित विलक्षण शरीर-इन्द्रिय आदि का ग्रहण ‘पुनर्जन्म’ है, और यह प्रक्रिया निरंतर जारी है. कठ, मैत्रायणी और कपिष्ठल आदि वेद की शाखाओं में एक सौ एक मृत्युओं का उल्लेख है. इनमें इन्द्रिय, वध, रोग, शोक और काम-क्रोध आदि सौ मृत्युएं हैं. लेकिन मृत्यु के इन सब कारणों से बचा जा सकता है. इसका समाधान चिकित्सा है, परन्तु उच्छेद रूप में एक मृत्यु का कोई समाधान नहीं है, जिसे हम स्वाभाविक मृत्यु या देह त्याग कहते हैं. देह त्याग के अनन्तर लोकान्तर में संचार को ‘गति’ कहते हैं. इस प्रकार आत्मा विभिन्न शरीरों में निरंतर विचरण करती रहती है और उन शरीरों के माध्यम से निरंतर कार्य करती रहती है.

तो यहाँ यह प्रश्न स्वाभविक रूप से पैदा होता है कि अगर आत्मा निरंतर शरीर ही धारण करती रहती है तो
फिर इन शरीरों के बन्धन से कैसे मुक्त हो सकती है, इन शरीरों से स्वतन्त्र होने का कोई उपाय है भी या नहीं? अगर है तो क्या है? और अगर नहीं है तो क्योँ नहीं? क्योँकि जब हम आत्महत्या यह सोच कर कर रहे हैं कि हमें इस शरीर से छुटकारा मिल जाएगा तो फिर हम गलत राह पर हैं, क्योँकि यह बात भी यहाँ पर कई बार कही जाती है कि आत्मा का किसी शरीर में रहना निश्चित है. अगर वह किसी भी तरह से उससे पहले उस शरीर से अलग होती है तो वह भटकती रहती है और फिर उस अवधि के पूर्ण होने के बाद वह अपने कर्मों के अनुसार एक नया शरीर धारण करती है. कठोपनिषद् में इस बात पर यूं प्रकाश डाला गया है “योनिमन्य प्रपद्यन्ते शरीरतवाय देहिन:/ स्थाणुमन्येऽसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्”. (2/2/7) अर्थात अपने ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिए योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं. लेकिन जब तक आत्मा शरीरों के बंधन में है तब तक वह कष्ट भोगती रहती है और वह निरंतर जन्म मरण की प्रक्रिया का हिस्सा बनती रहती है. अगर उसे इस जन्म मरण की प्रक्रिया से छुटकारा पाना है तो उसे निश्चित रूप से अपने निज रूप को जानना होगा, जिस सत्ता से वह अलग हुई है उस सता की जानकारी हासिल करनी होगी और फिर शरीर से मुक्त होने के बाद वह सीधे ही अपने निज रूप में मिल जायेगी और जन्म मरण के चक्कर से रहित हो जायेगी. “इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक् शरीररस्य विस्त्रसः/ तत: सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते”. (2/3/4) यदि इस देह में (मनुष्य शरीर) इसके पतन से पूर्व ही (ब्रह्म को) जान सका, तब तो यह बंधन से मुक्त हो जाता है. यदि नहीं जान पाया तो इन जन्म-मरण शील लोकों में वह शरीर भाव प्राप्त होने में विवश हो जाता है और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. इसकी अभिव्यक्ति कई बार व्यक्तियों ने अपने शब्दों में की है. Walt Whitman ने इस सन्दर्भ में लिखा है: “As to you, life, I reckon you are the leavings of many deaths./ No doubt I have died myself ten thousand times before”. जीवन तुम मेरे अनेक अवसानों के अवशेष हो. इसमें कोई सन्देश नहीं कि मैं इसके पूर्व दस हजार बार मर चुका हूँ. लेकिन इस दस हजार के जन्म और मरण से मुक्ति ब्रह्म को जानने से पायी जा सकती है. 
 
जहाँ तक मृत्यु और देह त्याग का सम्बन्ध है उसके विषय में अनेक मत प्रचलन में है. लेकिन यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिए कि मृत्यु और देह त्याग दोनों अलग-अलग है. ‘त्याग’ शब्द हमें इस बात का अहसास करवाता है कि जो कुछ भी हमारे पास है उसे हम छोड़ दें या किसी दूसरे को दे दें. लेकिन शरीर के विषय में हम ऐसा कैसे कर सकते हैं. जिस शरीर के लिए हम इतना कुछ कर रहे हैं उसे हम कैसे त्यागें, यह बड़ा विचारणीय प्रश्न है. अक्सर जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसे हम कहते हैं कि उसने देह त्याग दी. लेकिन यह सच नहीं है, देह का साथ आत्मा छोड़ देती है और शरीर निर्जीव हो जाता है, उसकी सारी इन्द्रियाँ काम करना बंद कर देती हैं और ऐसी स्थिति में हम उस शरीर को निर्जीव कह देते हैं, जो कि स्वाभाविक भी है. लेकिन किसी भी स्थिति में उसे देह त्याग नहीं कह सकते. शेष अगले अंक में ....!!!

8 टिप्‍पणियां:

  1. मैं अनन्त हूँ, कैसा मरना

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  2. जी बिलकुल सही कह रहे हैं आप । यह विश्लेसन काफी अच्छा लगा।

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  3. विचारशील लेखन .. आत्महत्या औ स्वाभाविक मृत्यु ... दोनों ही देह त्याग हैं क्या ... गहरा चिंतन ...

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  4. देहांत का मतलब है देह का अंत। जीवांत कभी नहीं होता है। जीव (आत्मा )देह-अंतरण करता रहता है कर्मों के अनुसार। कृष्ण के चरणों में भक्ति और कृष्ण की जिस पर कृपा होती है वह वैकुण्ठ को जाता है कृष्ण के गोकुल में वास करता है देहांतरण से परे हो जाता है। बढ़िया विचार मंथन बढ़िया पोस्ट है।

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  5. जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों तो त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है..... सही कह रहे हैं आप

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  6. मृत्यु और देह त्याग दोनों अलग-अलग हैं, परन्तु दोनों ही स्थितियों में आत्मा शरीर त्याग कर अलग हो जाती है? उत्सुकता है जानने की... गहन विषय, गम्भीर चिंतन … सार्थक आलेख

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जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.