यह भी एक
सच है कि व्यक्ति जीवन में चाहे जितनी भाषाओँ की जानकारी हासिल कर ले,
उन्हें सीख ले, लेकिन जो सोचने और समझने की
प्रक्रिया है वह तो उसकी मातृ भाषा के माध्यम से ही संपन्न होती है. इतना ही नहीं
मातृ भाषा का प्रभाव उसके जीवन और उसके व्यक्तित्व पर हमेशा झलकता रहता है, चाहे
वह किसी भी भाषा का प्रयोग करे. गतांक से आगे....!!!!
भाषा सीखना
और उसे प्रयोग करना यह दोनों अलग-अलग बातें हैं. जरुरी नहीं कि हम कोई भाषा सीखें
और उसका प्रयोग करें, क्योँकि संवाद का सीधा सा नियम है कि जब हम किसी से किसी भी
भाषा में बात करें तो सामने वाले को भी वह भाव समझ आना चाहिए, भाव को समझने के लिए
भाषा की जानकारी जरुरी है, और भाषा की जानकारी के लिए शब्दों की समझ होनी जरुरी
है, शब्द को समझने के लिए उसके अर्थ के विषय में जानकरी होनी चाहिए. यह नियम वाचक
और श्रोता दोनों के लिए लागू होता है. तब कहीं हम कह सकते हैं कि एक सार्थक संवाद
हुआ, वर्ना अगर हम समझ में न आने वाली भाषा में अपनी भावनाओं और विचारों की
अभिव्यक्त करते रहें तो वैसी भाषा की कोई सार्थकता नहीं है. भाषा तो वही सार्थक है
जो आम जन की समझ में आ जाये और इसके साथ-साथ विचार भी वही सार्थक है जो अपने हितों
से ऊपर उठकर अभिव्यक्त किया गया हो, या ऐसा भी कह सकते हैं जिसमें व्यष्टि की
अपेक्षा समष्टि का भाव निहीत हो. वर्ना भाषा का एक पक्ष ऐसा भी हो सकता है कि हम
आम जन की समझ में आने वाली भाषा में बहुत निकृष्ट और दोयम दर्जे के विचार
अभिव्यक्त करें तो भी भाषा की कोई सार्थकता नहीं होगी.
एक दृष्टि
से अगर हम देखें तो ऐसा भी कह सकते हैं कि व्यक्ति का व्यवहार भाषा का आधार है, और
इसी बात का
दूसरा पक्ष ऐसा भी हो सकता है कि भाषा व्यक्ति के व्यवहार की परिचायक है. मैं दूसरे पक्ष से ज्यादा इतेफाक रखता हूँ. क्योँकि भाषा पर व्यक्ति के व्यवहार का किसी हद तक कोई फर्क नहीं पड़ता, हां एक स्थिति में व्यक्ति का व्यवहार भाषा को प्रभावित कर सकता है, जहाँ पर सामूहिक रूप से शब्दों का प्रयोग उनके वास्तविक सन्दर्भों की अपेक्षा किन्हीं अन्य सन्दर्भों के लिए किया जाय. लेकिन यह प्रक्रिया वर्षों में घटित होती है और निश्चित रूप से इसका प्रभाव भाषा पर पड़ता है. एक दूसरी स्थिति यह भी हो सकती है कि जब कोई सामाजिक रूप से प्रसिद्ध व्यक्ति किसी विशेष ‘शब्द’ का प्रयोग उसके विशेष अर्थ के सन्दर्भ में न करके किसी और सन्दर्भ में करता है तो भी व्यक्ति का उस शब्द के प्रति किये गए व्यव्हार का प्रभाव भाषा पर पड़ता है. लेकिन यह सब कुछ छुट-पुट रूप से घटित होता है, और ऐसी स्थिति भी वर्षों में एक-आध बार आती है और किसी विशेष शब्द आदि के लिए. वर्ना भाषा के विषय में तो कहा जाता है कि यह बहता नीर है इसलिए इसे हम किसी ख़ास सांचे में बाँध कर नहीं रख सकते, और यह भाषा के विकास की दृष्टि से संभव भी नहीं है. जो भाषा जितनी समृद्ध होती है उसमें अनेक भाषाओँ के शब्दों को समेटने की क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है. इसी तरह जो व्यक्ति भाषा के व्यवहार के प्रति सजग होता है वह भी अपने प्रयोग में लाई जाने वाली भाषा के लिए उतना ही लचीला रवैया अपनाता है और भाषा को अपने व्यवहार और व्यक्तित्व का अंग मानते हुए उसके विकास में सहायक बनता है.
दूसरा पक्ष ऐसा भी हो सकता है कि भाषा व्यक्ति के व्यवहार की परिचायक है. मैं दूसरे पक्ष से ज्यादा इतेफाक रखता हूँ. क्योँकि भाषा पर व्यक्ति के व्यवहार का किसी हद तक कोई फर्क नहीं पड़ता, हां एक स्थिति में व्यक्ति का व्यवहार भाषा को प्रभावित कर सकता है, जहाँ पर सामूहिक रूप से शब्दों का प्रयोग उनके वास्तविक सन्दर्भों की अपेक्षा किन्हीं अन्य सन्दर्भों के लिए किया जाय. लेकिन यह प्रक्रिया वर्षों में घटित होती है और निश्चित रूप से इसका प्रभाव भाषा पर पड़ता है. एक दूसरी स्थिति यह भी हो सकती है कि जब कोई सामाजिक रूप से प्रसिद्ध व्यक्ति किसी विशेष ‘शब्द’ का प्रयोग उसके विशेष अर्थ के सन्दर्भ में न करके किसी और सन्दर्भ में करता है तो भी व्यक्ति का उस शब्द के प्रति किये गए व्यव्हार का प्रभाव भाषा पर पड़ता है. लेकिन यह सब कुछ छुट-पुट रूप से घटित होता है, और ऐसी स्थिति भी वर्षों में एक-आध बार आती है और किसी विशेष शब्द आदि के लिए. वर्ना भाषा के विषय में तो कहा जाता है कि यह बहता नीर है इसलिए इसे हम किसी ख़ास सांचे में बाँध कर नहीं रख सकते, और यह भाषा के विकास की दृष्टि से संभव भी नहीं है. जो भाषा जितनी समृद्ध होती है उसमें अनेक भाषाओँ के शब्दों को समेटने की क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है. इसी तरह जो व्यक्ति भाषा के व्यवहार के प्रति सजग होता है वह भी अपने प्रयोग में लाई जाने वाली भाषा के लिए उतना ही लचीला रवैया अपनाता है और भाषा को अपने व्यवहार और व्यक्तित्व का अंग मानते हुए उसके विकास में सहायक बनता है.
अगर हम यह
मानकर चलते हैं कि किसी भाषा के प्रयोग करने वालों के कारण उस भाषा का स्वरूप
निर्धारित होता है तो हमें इस बात की भी समझ होनी चाहिए कि उन्हीं प्रयोग करने वालों
पर ही भाषा का सारा कार्य-व्यापार निर्भर करता है. ऐसी स्थिति में हम यह भी कह सकते हैं भाषा ही
व्यक्तित्व है और व्यक्तित्व ही भाषा. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि भाषा और लिपि
कोई एक हो सकती है, लेकिन जब हम उसके प्रयोक्ता पर ध्यान देते हैं तो हमें भाषा के
अलग–अलग रुप नजर आते हैं. जब हम किसी अध्यात्मिक व्यक्ति से मिलते हैं और उससे संवाद
करते हैं तो हमारे शब्द अलग होते हैं, किसी राजनितिक व्यक्ति से मुलाकात में हमारी
शब्द और हाव-भाव अलग होते हैं. किसी सामाजिक समारोह में जब हम मिलते हैं तो हमारे
शब्द अलग होते हैं, इसी तरह से हम किसी अपराधी के लिए अलग शब्दों का इस्तेमाल करते
हैं, संत के अलग, साहित्य से जुड़े व्यक्ति के लिए, समाज सेवक के लिए अलग. इस तरह
से जितने प्रकार के व्यक्तित्व हमारे सामने से गुजरते हैं उनके लिए हम वैसे ही शब्दों
का इस्तेमाल करते हैं. इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि भाषा का व्यक्तित्व से
गहरा सम्बन्ध है. जब हम व्यक्तित्व के अनुकूल शब्दों का प्रयोग करते हैं तो भाषा
की खूबसूरती और भी बढ़ जाती हैं, शब्द भाषा को एक नया आयाम देते हैं और जो व्यक्ति-व्यक्तित्व
के अनुकूल भाषा का प्रयोग करने में सक्षम होता है, वह सबसे ज्यादा प्रिय भी होता
है और दूसरी तरफ अपने व्यक्तित्व के अनुसार शब्दों का प्रयोग जो भी व्यक्ति करता
है वह उसके व्यक्तित्व को और अधिक प्रिय बनाता है. शब्दों के प्रयोग के प्रति अगर
हम सजग हैं तो हमारे सामाजिक सम्बन्ध कभी भी नहीं बिगड़ सकते, सामाजिक ही नहीं किसी
भी प्रकार के सम्बन्धों को बनाये रखने का मुख्य आधार शब्द ही हैं. हमारा
व्यक्तित्व, हमरा व्यवहार सब कुछ शब्दों के माध्यम से निर्धारित होता है और यह
जीवन की एक महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि आधारभूत कड़ी है.
आज की
परिस्थितियों पर अगर हम दृष्टिपात करते हैं तो यह बात हम समझ सकते हैं कि आज
शब्दों के प्रति हम लापरवाह हो गए हैं. हालाँकि सूचना तकनीक के आने से व्यक्ति के
संवाद की संभावनाओं में अकल्पनीय उन्नति हुई है. लेकिन जितनी यह उन्नति हुई है
उतना ही हमारा शब्दों के प्रति नजरिया बदला है. आज का दौर सोशल नेटवर्किंग का दौर
है. ऐसी स्थिति में हमें अपनी भाषा और शब्दों के प्रति सजगता को अपनाने की ज्यादा
आवश्यकता है. लेकिन कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि उन्हें कोई जानता नहीं, पहचानता नहीं
इसलिए वह किसी भी प्रकार के शब्दों का इस्तेमाल अपने भावों को अभिव्यक्त करने के
लिए करते हैं, लेकिन अगर वह दूसरे दृष्टिकोण से देखते तो यह भी सोच सकते थे कि इन
शब्दों के माध्यम से ही उनके व्यक्तित्व का परिक्षण होगा तो निश्चित रूप से वह कभी
भी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करते, कम से कम गाली जैसे शब्दों का तो नहीं. किसी
भी विषय के लिए हमें अपने विरोध और असहमति को प्रकट करने का अधिकार है, लेकिन उस
असहमति को हम अगर भद्दे शब्दों के माध्यम से जताएंगे तो संभवतः कोई लाभ होने वाला
नहीं है और दूसरी तरफ हमारा व्यक्तित्व भी धूमिल हो रहा है. यह वही शब्द हैं जिनके
माध्यम से हम प्रभावशाली और प्रभावहीन दोनों बन सकते हैं.
उच्च सिद्धान्तों को व्यक्त करना है तो उच्च भाषा की आवश्यकता होगी।
जवाब देंहटाएंशब्द सोच समझकर ही साझा किये जा सकते है.... सार्थक चिंतन
जवाब देंहटाएंशब्दै मारा गिर पड़ा ………शब्दै छोड़ा राज।
जवाब देंहटाएंजिन शब्द विवेकिया तिनका सरिगो काज॥