गतांक से आगे......!!! सृजन की
धारणा, सृजन के मन्तव्य, सृजन की कला और तकनीक आदि में समय-समय पर परिवर्तन होता
आया है. सृजन की प्राथमिकताओं के विषय में जब हम पूर्ववर्ती विचारकों के विचारों
का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि सभी विद्वान इस विषय में एकमत नहीं हैं कि आखिर
कोई रचनाकार जब सृजन करता है तो उसके पीछे उसका मन्तव्य क्या होता है? हालाँकि यह
विषय बहुत समय से बहस का विषय रहा है, शायद तब से जब से मनुष्य ने सृजन के क्षेत्र
में कदम रखा है तब से वह इस विषय पर लगातार चिन्तन करता रहा है और आज तक इस विषय
पर उसका चिन्तन अनवरत जारी है. प्रारम्भ से मनुष्य सृजन को दैवीय प्रेरणा का कारण
मानता रहा है, इसके साथ वह यह भी मानता रहा है कि सृजन के पीछे व्यक्ति की प्रतिभा
की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है. लेकिन हम यहाँ इस मत को ऐसे भी व्याख्यायित कर
सकते हैं कि प्रतिभा के साथ अगर प्रेरणा नहीं होगी तो फिर ऐसी प्रतिभा कोई खास
रचनात्मक कार्य नहीं कर सकती.
सृजन के
लिए प्रतिभा एक आवशयक पहलू हो सकता है, लेकिन प्रेरणा का अपना एक ख़ास महत्व है. इस
सन्दर्भ में प्लेटो की मान्यता है कि : “For not by
art does the post sign, but by power Divine; had he learned by rules of art, he
would have known how to speak not of them only, but of all. And reason is no
longer with him; no man while he retains that faculty has the oracular gift of
poetry”. (Dialogue of Plato by B. Jowett) प्लेटो की स्पष्ट
मान्यता है कि इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं के पीछे दैवी प्रेरणा काम करती है. कवि
भी दैवी प्रेरणा के वशीभूत होकर ही काव्य-रचना और कलाकार कला की सृष्टि करता है.
उनका विचार है कि कवि के भीतर नयी उद्भावना और भावावेश कला से नहीं, वरन् दैवी
प्रेरणा से अभिभूत होता है. उत्कृष्ट काव्य उच्च भावनाओं, उच्च विचारों और ज्ञान
का संचार करता है. अतः वह समाज के लिए उपयोगी होता है. इसके विपरीत निम्न कोटि का
काव्य अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को नहीं निभाता और समाज में अनैतिकता और
भ्रष्टाचार को फैलाता है तथा उच्च आदर्शों को क्षीण बनाता है. उनके प्रति अनास्था
का भाव जगाता है. अतः ऐसा काव्य समाज के लिए घातक है. वह ज्ञान, धर्म, नीति और
ईश्वर-विरोधी होने का भाव जगाता है. इसलिए प्लेटो की स्पष्ट मान्यता है कि श्रेष्ठ
काव्य प्रतिभा के बल पर नहीं, बल्कि प्रेरणा के बल पर रचा जाता है. इससे यह बात
स्पष्ट होती है कि किसी व्यक्ति में बेशक सृजन की प्रतिभा नहीं, लेकिन उसमें किसी
विशेष रचनात्मक कार्य के लिए प्रेरणा का संचार किया जाये तो वह उसी प्रेरणा के बल
पर बहुत कुछ हासिल कर सकता है. हाँ जन्मजात प्रतिभा में हमेशा मौलिकता की सम्भावना
ज्यादा बलबती होती है, इसलिए जिस व्यक्ति में जन्मजात किसी विशेष क्षेत्र में
कार्य करने की रूचि होती है तो वह बहुत कुछ ऐसा कर जाता है जिसकी कल्पना दुनिया ने
नहीं की होती है. सृजन की प्रेरणा के पीछे मत चाहे जैसे भी हों और जो भी हों, लेकिन हमें सृजन के लिए प्रतिभा और प्रेरणा
दोनों के महत्व को स्वीकारना चाहिए.
जहाँ पर
साहित्य की बात आती है तो उसके उद्देश्यों और सृजनकर्ता की प्राथमिकताओं पर काफी
बहस हुई
है. भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य सृजन की प्राथमिकताओं और उसके प्रयोजन को लेकर बहुत विचार किया है. भारतीय आचार्यों में भरत, भामह, वामन, कुन्तक, रुद्रट, मम्मट आदि आचार्यों ने इस विषय पर काफी चिन्तन किया है. आचार्य भरत ने नाट्य (काव्य) के प्रयोजन पर विचार करते हुए कहा है कि : “दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्. / विश्रान्ति जननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति.. / धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धि विवर्धनम्. / लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति्”.. (नाट्यशास्त्र) अर्थात दुःख, श्रम, शोक से आर्त तपस्वियों के विश्राम के लिए तथा धर्म, यश, आयु-वृद्धि, हित साधन, बुद्धि-वर्धन और लोकोपदेश के निमित नाट्य की रचना होगी. आचर्य भरत के बाद के आचार्यों के सामने काव्य सृजन के यह प्रयोजन रहे हैं. उन्होंने इन सबमें से अपनी बुद्धि और रूचि के अनुसार कुछ को अपना लिया है और कुछ को छोड़ दिया है. इतना ही नहीं समय और स्थिति के अनुसार उन्हें जो कुछ और सही लगा है उसे जोड़ भी दिया है. इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि काव्य का प्रयोजन समय और स्थिति के अनुसार बदलता रहा है. आचार्य भरत के बाद भामह ने काव्य के प्रयोजन पर इन शब्दों में विचार किया है : “धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च. / करोति कीर्ति प्रीतिं च साधु काव्य निबन्धनम्. (काव्यालंकर) अर्थात काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तथा कलाओं में निपुणता के उपलब्धि के निमित की जाती है. साथ ही वह कीर्ति एवं प्रीति (आनन्द) प्रदान करने वाली होती है. भामह के शब्दों में रचना और रचनाकार के उद्देश्य स्पष्ट नजर आते हैं. रचना का उद्देश्य है पाठक को आनंद की अनुभूति करवाना और रचनाकर का उद्देश्य है रचना प्रक्रिया का आनन्द प्राप्त करते हुए यश की प्राप्ति करना.
सृजन का मूल उद्देश्य मानव के सकारात्मक पहलूओं को उजागर कर मानवीय मूल्यों की स्थापना करना है. प्राचीन आचार्य इस बात पर व्यापक ध्यान देते थे. इसकी अभिव्यक्ति हमें संस्कृत वाऽ.मय में देखने को मिलती है. कालान्तर में साहित्य की भाषा में परिवर्तन, मानव मूल्यों में बदलाव, सभ्यता और संस्कृति में परिवर्तन के साथ-साथ सृजन और सृजनकर्ता की प्राथमिकताएं भी बदली हैं, और किसी हद तक यह बदलाव मानव की प्रगति के सूचक हैं. मानव ने जितना भौतिक विकास और अध्यात्मिक चिन्तन किया है उस सबकी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से हुई है. साहित्य मानव के चिन्तन और विकास से अछूता नहीं रह सकता. आज तक के साहित्य के इतिहास का जब हम गहन अध्ययन करते हैं तो हमें पता चलता है कि ज्यादातर साहित्य में वही अभिव्यक्त हुआ है जिसका सीधा सम्बन्ध मानव की भावनाओं, संवेदनाओं से है. बिना मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति के कोई भी साहित्य श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता. हालाँकि कई बार मनोरंजन परक साहित्य भी लिखा जाता रहा है, लेकिन उस मनोरंजन में भी मानवीय वृतियों पर कटाक्ष या उनकी प्रशंसा की जाती रही है, और यह सब कुछ साहित्य का अंग रहा है और आने वाले समय में भी यह सब कुछ साहित्य में घटित होता रहेगा. समग्र रूप से हम यह कह सकते हैं कि साहित्य या सृजन के केन्द्र में मानवीय पहलू ज्यादा रहे हैं. जिस रचनाकार ने मानवीय मूल्यों की स्थापना को अपनी रचना का उद्देश्य बनाया है वह रचनाकार कालजयी हो गया है. ऐसे रचनाकारों की कृतियाँ बेशक हजारों वर्ष पहले रची गयी हों लेकिन उनकी महता आज भी वैसी ही है, और आने वाले समय में भी यह मानव का पथ प्रदर्शन करती रहेंगी.
है. भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य सृजन की प्राथमिकताओं और उसके प्रयोजन को लेकर बहुत विचार किया है. भारतीय आचार्यों में भरत, भामह, वामन, कुन्तक, रुद्रट, मम्मट आदि आचार्यों ने इस विषय पर काफी चिन्तन किया है. आचार्य भरत ने नाट्य (काव्य) के प्रयोजन पर विचार करते हुए कहा है कि : “दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्. / विश्रान्ति जननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति.. / धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धि विवर्धनम्. / लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति्”.. (नाट्यशास्त्र) अर्थात दुःख, श्रम, शोक से आर्त तपस्वियों के विश्राम के लिए तथा धर्म, यश, आयु-वृद्धि, हित साधन, बुद्धि-वर्धन और लोकोपदेश के निमित नाट्य की रचना होगी. आचर्य भरत के बाद के आचार्यों के सामने काव्य सृजन के यह प्रयोजन रहे हैं. उन्होंने इन सबमें से अपनी बुद्धि और रूचि के अनुसार कुछ को अपना लिया है और कुछ को छोड़ दिया है. इतना ही नहीं समय और स्थिति के अनुसार उन्हें जो कुछ और सही लगा है उसे जोड़ भी दिया है. इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि काव्य का प्रयोजन समय और स्थिति के अनुसार बदलता रहा है. आचार्य भरत के बाद भामह ने काव्य के प्रयोजन पर इन शब्दों में विचार किया है : “धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च. / करोति कीर्ति प्रीतिं च साधु काव्य निबन्धनम्. (काव्यालंकर) अर्थात काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तथा कलाओं में निपुणता के उपलब्धि के निमित की जाती है. साथ ही वह कीर्ति एवं प्रीति (आनन्द) प्रदान करने वाली होती है. भामह के शब्दों में रचना और रचनाकार के उद्देश्य स्पष्ट नजर आते हैं. रचना का उद्देश्य है पाठक को आनंद की अनुभूति करवाना और रचनाकर का उद्देश्य है रचना प्रक्रिया का आनन्द प्राप्त करते हुए यश की प्राप्ति करना.
सृजन का मूल उद्देश्य मानव के सकारात्मक पहलूओं को उजागर कर मानवीय मूल्यों की स्थापना करना है. प्राचीन आचार्य इस बात पर व्यापक ध्यान देते थे. इसकी अभिव्यक्ति हमें संस्कृत वाऽ.मय में देखने को मिलती है. कालान्तर में साहित्य की भाषा में परिवर्तन, मानव मूल्यों में बदलाव, सभ्यता और संस्कृति में परिवर्तन के साथ-साथ सृजन और सृजनकर्ता की प्राथमिकताएं भी बदली हैं, और किसी हद तक यह बदलाव मानव की प्रगति के सूचक हैं. मानव ने जितना भौतिक विकास और अध्यात्मिक चिन्तन किया है उस सबकी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से हुई है. साहित्य मानव के चिन्तन और विकास से अछूता नहीं रह सकता. आज तक के साहित्य के इतिहास का जब हम गहन अध्ययन करते हैं तो हमें पता चलता है कि ज्यादातर साहित्य में वही अभिव्यक्त हुआ है जिसका सीधा सम्बन्ध मानव की भावनाओं, संवेदनाओं से है. बिना मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति के कोई भी साहित्य श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता. हालाँकि कई बार मनोरंजन परक साहित्य भी लिखा जाता रहा है, लेकिन उस मनोरंजन में भी मानवीय वृतियों पर कटाक्ष या उनकी प्रशंसा की जाती रही है, और यह सब कुछ साहित्य का अंग रहा है और आने वाले समय में भी यह सब कुछ साहित्य में घटित होता रहेगा. समग्र रूप से हम यह कह सकते हैं कि साहित्य या सृजन के केन्द्र में मानवीय पहलू ज्यादा रहे हैं. जिस रचनाकार ने मानवीय मूल्यों की स्थापना को अपनी रचना का उद्देश्य बनाया है वह रचनाकार कालजयी हो गया है. ऐसे रचनाकारों की कृतियाँ बेशक हजारों वर्ष पहले रची गयी हों लेकिन उनकी महता आज भी वैसी ही है, और आने वाले समय में भी यह मानव का पथ प्रदर्शन करती रहेंगी.
सूचना
तकनीक के इस दौर में सब कुछ अप्रत्याशित रूप से घटित हो रहा है. आज की दुनिया में
जब हम अपने चारों और देखते हैं तो पाते हैं कि सब कुछ परिवर्तित हो गया है, और
मानव का जीवन सुखद हो गया है. मानव ने चाँद-तारों तक अपनी पहुँच वर्षों पहले बना
ली है, अब वह मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनाओं की तलाश में जुटा है. इन सब
उपलब्धियों और संघर्ष के लिए मानव बधाई का पात्र है. आज चिन्तन के जितने आयाम
व्यक्ति के सामने हैं वह उसकी क्रियाशीलता और उसकी कभी हार न मानने वाली प्रवृति
के परिचायक हैं. ऐसा बहुत कुछ मानव ने अपने आदिकाल से आज तक हासिल किया है जिससे
उसका जीवन सहज और सुखद हो गया है. साहित्य ही नहीं विज्ञान, कला, तकनीक, संगीत,
चिकित्सा आदि क्षेत्रों में मानव की उपलब्धियां गर्व करने योग्य हैं. हाँ इस
सन्दर्भ में यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि यह जो कुछ भी मानव ने आज तक किया है
उसमें उसकी जिजीविषा, यश और कीर्ति की लालसा ने भी मुख्य भूमिका निभाई है. बहरहाल
स्थिति और कारण जो भी हो मनुष्य की उपलब्धियां कभी-कभी सोचने पर मजबूर कर देती
हैं. शेष अगले अंकों में.....!!!
मन की उत्कण्ठा धीरे धीरे सृजन का रूप ले लेती है।
जवाब देंहटाएंसुंदर वैचारिक आलेख.....
जवाब देंहटाएंमन के उठते भाव को सहेजना ही सृजन है...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST - आँसुओं की कीमत.
मन के उठते भाव को सहेजना ही सृजन है...!
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जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सांसद बनना हो तो पहले पहलवानी करो - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !