चिन्तन
मनुष्य की सहज प्रवृति है. यह गुण उसे प्रकृति द्वारा प्रदत्त है. चिन्तन के इसी
गुण के बल पर उसने प्रकृति के रहस्यों को समझने की भरपूर कोशिश की है, और आज तक वह इस दिशा में अनवरत क्रियाशील है. उसके
चिन्तन के अनेक आयाम हैं और हर एक आयाम का अपना एक महत्व है. दुनिया के इतिहास पर
हम नजर डालते हैं तो हम यह सहज रूप से ही समझ जाते हैं कि मनुष्य ने आज तक जो भी
चिन्तन किया है उसके केंद्र में वह स्वयं ही रहा है. अपने चिन्तन के केंद्र में
खुद को रखने से उसने यह महसूस किया कि वह भी प्रकृति का ही एक अभिन्न अंग है. जिन
तत्वों से प्रकृति का निर्माण हुआ है उन्हीं तत्वों से उसका भी निर्माण हुआ है.
इसलिए प्रारम्भ में उसके चिन्तन का केन्द्र प्रकृति और इसके रहस्य रहे हैं. चिन्तन
का जहाँ से प्रारम्भ हुआ है या जो दस्तावेज आज हमें उपलब्ध हैं या जिन विषयों के
विषय में आज हमें जानकारी उपलब्ध है वह हमें स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं कि
प्रारम्भ में मनुष्य ने अपनी चेतना को समझने के प्रयास किये हैं. उसने यह भी समझने
की चेष्टा की है कि आखिर इस सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ? इस
धरा पर ही नहीं बल्कि इस ब्रहमांड में जो कुछ भी है, उसका
निर्माण कैसे हुआ? इस सबके पीछे किसका हाथ है? यह जो कुछ भी निर्मित हुआ है, इसका उद्देश्य क्या है?
इस ब्रहमांड को सुनियोजित तरीके से चलाने में किसकी भूमिका है और
क्योँ? ऐसे अनेक सवाल हैं जो सृष्टि के प्रारम्भ से मनुष्य
के चिन्तन का हिस्सा रहे हैं और समय-समय पर मनुष्य ने उसके विषय में अपने
निष्कर्षों से आने वाली पीढ़ियों को अवगत करवाने के लिए अनेक माध्यमों का भी विकास
किया है.
मनुष्य
ने आज तक जितना भी चिन्तन किया है और जहाँ भी किया है, जिस भी भाषा और जिस भी पद्धति के माध्यम से किया है
उन सबके निष्कर्ष में उसने एक बात तो स्वीकार की है कि इस सृष्टि का सृजन कर्ता
परमात्मा है, और इसे वह कई नामों से अभिहित करता है. इस
निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद उसके जहन में यह प्रश्न पैदा होने शुरू हुए कि आखिर यह
ब्रह्म क्या है? इस दुनिया की विभिन्न सत्ताओं में उसकी
भूमिका क्या है? श्वेताश्वतरोपनिषद् के प्रथम अध्याय में इस प्रश्न पर कुछ इस तरह से चिन्तन किया गया है “किं कारणं ब्रह्म
कुत: स्म जाता, जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा:। अधिष्ठिता:
केन सूखेतरेषु, वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्”।। (1/1/1133) अर्थात जगत का कारणभूत ब्रह्म
कैसा है? हम किससे उत्पन्न हुए हैं? किसके
द्वारा जीवित रहते हैं? कहाँ स्थित हैं? और हे ब्रह्मविद्गण! हम किसके द्वारा सुख-दुःख में प्रेरित होकर व्यवस्था
(संसार यात्रा) का अनुवर्तन करते हैं. यक़ीनन यह सबसे
गम्भीर प्रश्न है. क्योँकि जिस सृष्टि में हम रहते हैं और जिस तरह से यह
क्रियान्वित होती है, उससे तो यह बात स्पष्ट रूप से समझ आती
है कि इस सृष्टि की रचना के पीछे कोई न कोई उद्देश्य तो जरुर होगा.
इन सब
बातों पर विस्तार से चिन्तन करने की जरुरत है, और सबसे बड़ी महता इस बात की है कि हम दुनिया भर में उपलब्ध आज
तक के चिन्तन और अनुभव के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालें. क्योँकि आज तक इन विषयों
पर जितना भी चिन्तन किया गया है वह एक सत्ता को तो मानता है लेकिन उसकी उत्पति, क्रिया और कारणों पर अलग-अलग राय रखता है. इसलिए जब
वह चिन्तन व्यवहार के धरातल पर उतरता है तो हमें लगता है कि जो बात कोई दूसरे
विचार को मानने वाला कह रहा है, मेरी बात उससे कहीं श्रेष्ठ
है, मेरा मत किसी और निष्कर्ष का समर्थन करता है, इसलिए आज हम देखते हैं कि पूर्ववर्ती काल में सृष्टि के रहस्यों और दुनिया
को सुन्दर स्वरूप प्रदान करने के लिए जो मार्ग खोजे गए, कालान्तर
में उन मार्गों पर कुछ तथाकथित लोगों का अधिकार हो गया. उन्होंने अपने स्वार्थों
को सिद्ध करने के लिए कई तरह के भ्रम और भ्रांतियां पैदा की और आज जितने भी पहलू
इन विषयों पर उपलब्ध हैं, वह सुलझने की बजाय उलझते हुए
ज्यादा नजर आ रहे हैं और यह सब कुछ मनुष्य जाति के लिए और उसके चिन्तन के लिए सही
नहीं है.
प्रारम्भ
में मनुष्य ने जब सृजन की दुनिया में कदम रखा तो उसके उद्देश्य बहुत बृहत् थे, वह सम्पूर्ण कायनात को अपने चिन्तन का हिस्सा बनाना
चाहता था और इसी कोशिश में उसने वनस्पति, जल, वायु, सूर्य, चन्द्र, तारे, नक्षत्र आदि के साथ-साथ इन सबको क्रिया रूप
प्रदान करने वाली शक्ति को समझने की कोशिश भी की. अपनी शक्ति और साधना के बल पर
उसने जो कुछ भी पाया उसके आधार पर उसने इन रहस्यों के निष्कर्षों को
क्रियान्वित करने की कोशिश की, और जो कुछ उसे हासिल नहीं हुआ
या जो कुछ उसे समझ नहीं आया उसके प्रति उसने सकारात्मक भाव रखा और उसे भी अपने
जीवन का आधार मानते हुए उसके प्रति आस्था और सम्मान का भाव रखते हुए उस रहस्य को
समझने की कोशसिह की. वैदिक साहित्य में हमें इस बात के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं,
और जो कुछ भी उसने उस प्रकृति के माध्यम से सीखने की कोशिश की या
उसने जो अपने भावों को अभिव्यक्त करने की कोशिश की उसे उसने दैवीय प्रेरणा कहा.
हमारे देश भारत में तो कोई भी प्राचीन ग्रन्थ ऐसा नहीं मिलता जिसमें इस बात को
पुष्ट न किया गया हो कि सृजन का विषय चाहे जो भी रहा हो, लेकिन
उसमें मानवीय पहलूओं को प्रमुखता से उजागर किया गया है और इस धारणा को भी पुष्ट
किया गया है कि जो भी सृजन हुआ है वह सब दैवीय प्रेरणा का परिणाम है.
कालान्तर में बेशक सृजन की यह धारणा बदली हो और यह किसी हद तक
स्वाभाविक भी है. क्योँकि सृजन समाज का हिस्सा होता है, जिस तरह के परिवर्तन समाज में आते हैं वह सब कुछ
सृजन के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं. तभी तो कहा जाता है कि साहित्य समाज का
दर्पण है. कभी साहित्य समाज को प्रभावित करता है तो कभी समाज साहित्य को प्रभावित
करता है. लेकिन साहित्य के सृजन की प्राथमिकता तो मनुष्य है और वह आज तक इस दिशा
में अग्रसर रहा है. लेकिन बदलते दौर में दुःख इस बात है कि सृजन की प्राथमिकताएं
भी बदली और आज हम ऐसे बिन्दु पर खड़े है जहाँ से हम अतीत को देखकर समझकर गौरवान्वित
होते हैं, लेकिन भविष्य पर गहरे प्रश्न चिन्ह खड़े हैं. विषय
चाहे कोई भी हो, दिशा चाहे कोई भी हो अब वह गंभीरता कहाँ रही
और वह ललक कहाँ. हालाँकि हम ऐसा नहीं कह सकते कि अब सृजन नहीं हो रहा है, हो रहा है, पूर्ववर्ती काल से कहीं ज्यादा हो रहा
है. लेकिन कहीं कोई गंभीरता नहीं, कहीं कोई मौलिकता नहीं,
बस एक सरपट दौड़ है दूसरे से आगे निकलने की, सब
कुछ कम संघर्ष में हासिल करने की और उसके लिए हम किसी मानक को मानने के लिए तैयार
नहीं. बस हम दौड़ना चाहते हैं, भले ही उसकी सार्थकता हो या
नहीं, उसके परिणाम क्या होंगे, इस बात
की कोई चिंता नहीं. बस एक ही चिंता है किस तरह से किसी से आगे निकला जाए, कैसे किसी को नीचा दिखाया जाये. यह एक ऐसा उपक्रम है जिसमें आज हमारे समय
के बहुत से तथाकाथित सृजनकर्मी प्रवृत हैं. हम इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे पा रहे
हैं कि हमारे सामने चिन्तन और सृजन के जो मानक हैं, क्या हम
उन मानकों पर कितना खरे उतर पाए हैं, और हम उससे आगे बढ़ने के
लिए और क्या कर सकते हैं? हमारे चिन्तन का हिस्सा क्या होना
चाहिए? किस दिशा में हमें और काम करने की जरुरत है? यह कुछ ऐसे प्रश्न
हैं जिन पर आज हमें बहुत गंभीरता से विचार करने की जरुरत है और आज जो माध्यम हमारे
सामने हैं उन माध्यमों का लाभ उठाते हुए हम इस दुनिया के स्वरूप को सुन्दर बनाने
में कितना सहयोग कर पाते हैं, इस बात पर सोचने की आवश्यता
है. शेष अगले अंकों में.....!!!
भविष्य भी समृद्ध बने यह प्रयास हो हम सबका ..... सुंदर चिंतन
जवाब देंहटाएंबिना सृजन जीवन में ठहराव आ जायेगा..सुन्दर आलेख।
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख।।
जवाब देंहटाएंनई कड़ियाँ : मेरी भोपाल यात्रा (दूसरा दिन) - साँची का स्तूप और साँची के बौद्ध स्मारक - 1
साहित्य समाज का दर्पण है. कभी साहित्य समाज को प्रभावित करता है तो कभी समाज साहित्य को प्रभावित करता है.....सुंदर चिंतन किया है केवल भाई
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन राय का लेन देन - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !