आज से
पांच हजार साल पहले के इतिहास की तरफ जब हम देखते हैं तो, हमें मनुष्य के होने के कुछ चिन्ह दिखाई देने शुरू
हो जाते हैं. मनुष्य ही क्योँ हमें इतिहास के इस पहलू पर भी ध्यान देना होगा कि
मनुष्य के होने से पहले इस धरा पर क्या था? और उसकी उत्पत्ति
कैसे हुई? हो सकता है इस बात पर भी विचार किया गया हो कि इस
धरा पर प्रकृति और जीवन की उत्पत्ति से पहले क्या था? यह बात
अलग है कि किसी एक निष्कर्ष पर अभी तक मनुष्य पहुंचा हो. वैसे एक बात तो सभी कोणों
से सही है कि इस धरती पर अगर कोई सर्वश्रेष्ठ जीव है तो वह है ‘मनुष्य’. मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ होने के अपने-अपने
कारण हैं. हम जिस पहलू से और जिस कोण से उसे देखने की कोशिश करेंगे, वह पहलू हमें सकारात्मक ही प्रतीत होगा, और हम
मनुष्य की उपलब्धियों पर गौर करते हुए आगे बढ़ते नजर आयेंगे, और
यह भी सोचेंगे कि इन पांच हजार सालों में मनुष्य ने कितना वैज्ञानिक विकास किया है,
कितनी भौतिक सुख-सुविधाएँ उसने अपने लिए जुटाई हैं और किस तरह से
अपने जीवन को ‘पाषाण युग’ से निकाल कर ‘अंकीय युग’ (Digital Age) तक पहुंचाया है. मनुष्य इस
‘अंकीय युग’ से भी आगे निकल जाना चाहता
है और पूरे ब्रहमांड में अपनी जीवटता के आधार पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना
चाहता है. इसी श्रेष्ठता के भाव ने उसे हमेशा क्रियाशील बनाये रखा है और वह
निरन्तर प्रगति करते हुए आगे बढ़ रहा है.
लेकिन
इस पूरी प्रगति के दूसरे पहलू को देखें तो यह बड़ा दर्दनाक और इतना वीभत्स है कि
मनुष्य के होने पर भी सन्देह होने लगता है. मनुष्य जिसे ‘ईश्वर’ का प्रतिरूप कहा गया है,
जो ईश्वर के जैसा है. यह हम सबकी मान्यता है और भारत के सन्दर्भ में
देखा जाए तो यहाँ इस मान्यता को बड़ी मजबूती से स्थापित करने की कोशिश की गयी है.
यहाँ तो मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति के हर पहलू को ईश्वर का प्रतिरूप ही माना
गया है. एक मान्यता तो यह भी है कि यह सारी सृष्टि ईश्वर के द्वारा सृजित है. वही
इसे उत्पन्न करने वाला, चलाने वाला और इसे नष्ट करने वाला
है. अगर मनुष्य को इन सब बातों की जानकारी है, और यही उसकी
मान्यता है तो फिर उसकी दौड़ समाप्त हो जानी चाहिए. उसके मन से भेदभाव मिट जाने
चाहिए, और पूरी दुनिया में सिर्फ मानवीय पहलुओं का ही
बोलबाला होना चाहिए.
हालाँकि
आदर्शों के हिसाब से मानवीय पहलुओं का आकलन किया जाए तो मनुष्य ने अपने लिए बहुत
ऊँचे आदर्श तय किये हैं, और ऐसा
नहीं है कि आज इन आदर्शों की कोई कीमत नहीं है, या मनुष्य इन
आदर्शों को समझने की कोशिश नहीं कर रहा है. वह सब कुछ कर रहा है लेकिन प्रगति कुछ
नहीं हो रही है. सब कुछ विपरीत दिशा में जा रहा है और दिन-प्रतिदिन भौतिक चकाचौंध
में मनुष्य अपने अस्तित्व को ही नष्ट कर रहा है. जो संकेत आज हमें मनुष्य की
वैज्ञानिक उन्नति दे रही है अगर उसका सही ढंग से आकलन किया जाए तो स्थिति संभालने
का मौका भी हमारे पास नहीं है. लेकिन जरा रुकें और सोचें कि यह सब कुछ क्योँ किया
जा रहा है और इसका क्या लाभ मानवता को होने वाला है. मैंने एक बड़ी अर्थपूर्ण
पंक्ति कभी पढ़ी थी कि ‘आज तक अच्छा युद्ध और बुरी
शान्ति कभी नहीं हुई’. इतिहास उठाकर देखें तो पता
चलता है कि जब भी युद्ध हुआ है उसके परिणाम कभी सार्थक नहीं रहे हैं और शान्ति कभी
भी बुरी नहीं हुई है. हमारे यहाँ ‘सत्य और अहिंसा’ को बढ़ी महता प्रदान की गयी है, लेकिन यह सब बातों तक
या कहने तक ही सीमित हो गया है. इन सब आदर्शों की कोई व्यावहारिकता आज की दुनिया
में कहीं नजर नहीं आ रही है. हालाँकि उपरी तौर पर देखा जाए तो पूरे विश्व में
मानवीय पहलुओं की दुहाई देने वालों की कमी नहीं है. लेकिन यथार्थ में जो कुछ भी
घटित हो रहा है उसका चेहरा बड़ा विद्रूप है. शेष अगले अंक में....
अच्छा है । रोज नहीं तो कम से कम कुछ दिन के अंतराल पर ब्लाग को कुछ ना कुछ खिलाया करें :)
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर विचार प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपके विचारों से सहमत हूँ अगली कड़ी का इंतज़ार है
जवाब देंहटाएंआभार
मनुष्य जिसे ‘ईश्वर’ का प्रतिरूप कहा गया है, जो ईश्वर के जैसा है.....विचारों से सहमत हूँ :)
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