गत अंक से आगे.... मनुष्य चेतना का प्रतिबिम्ब है
और यही इसकी वास्तविक पहचान है. वैसे अगर चेतना के इस दायरे को मनुष्य से बाहर की
दुनिया पर भी लागू किया जाए तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. जब हम इस बात
को स्वीकारते हैं कि इस सृष्टि के कण-कण में इसे रचने वाली चेतना समाई है तो सभी
इसी चेतना के ही प्रतिबिम्ब कहे जाएँ तो
ज्यादा बेहतर होगा. लेकिन मनुष्य को इन सबमें श्रेष्ठ माना गया है और किसी हद तक
यह बात सही भी है. लेकिन मनुष्य को जिस पहलू के कारण श्रेष्ठ माना गया है उसे भी
समझने की जरुरत है. जिन्होंने अपने जीवन का अधिकतर समय इस पहलू को समझने में लगाया
और जिनकी कही हुई बात की मान्यता इस दुनिया में है, उन्होंने तो कहा है कि:-
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय
और मैथुन– इनके आधार पर तो इनसान और पशु में कोई भेद नहीं है.
धर्म के कारण ही मनुष्य विशेष है और जो धर्म विहीन है वह पशु के समान है. इसी
सन्दर्भ को संतों ने और स्पष्ट तरीके से समझते हुए कहा कि:-
निद्रा, भोजन, भोग,
भय, यह पशु पुरुष समान।
ज्ञान अधिक इक नरन में,
ज्ञान बिना नर पशु जान॥
इनसान और पशु में अन्तर शारीरिक क्रियाओं के आधार
पर नहीं, क्योँकि शारीरिक क्रियाएं मनुष्य और पशु में समान हैं. देखा तो यहाँ तक
भी गया है कि पशु इन शारीरिक क्रियाओं का निर्वाह उसे प्रकृति द्वारा प्रदत्त
मर्यादा के अनुरुप ही करता है. लेकिन मनुष्य अधिकतर इन मर्यादाओं का उलंघन करता है.
उसके लिए जीवन का कोई एक निश्चित पैमाना नहीं है. देश काल और समय के अनुसार मनुष्य
के जीवन जीने और समझने का पैमाना बदलता रहता है. जो पहलू किसी एक देश में बुरा
माना जाता है वही किसी और देश के लोगों में सम्मान का सूचक हो सकता है. पूरी
दुनिया में जीवन को किसी एक पैमाने में नहीं जिया जाता. मनुष्य जीवन में, जीवन
जीने के पहलूओं और उससे सम्बन्धित मान्यताओं में इतनी विविधता है कि किसी एक को
बेहतर और किसी एक को कमतर करके कभी नहीं आँका जा सकता. इन सबके विषय में विचार
करते हुए हम सोच सकते हैं कि क्या मनुष्य जीवन में इतिहास की कोई भूमिका होती है?
उसके जीवन में इतिहास जैसा कुछ है? और अगर इतिहास जैसा कुछ है तो उसकी सीमा क्या
है ? उसका क्या प्रभाव मनुष्य के जीवन पर पड़ता है और वह किस तरह से मनुष्य के जीवन
को प्रभावित करता है. मनुष्य जीवन में इतिहास से सम्बन्धित ऐसे अनेक पहलू हैं, जो
कई बार हमें जीवन के विषय में गंभीरता से सोचने पर विवश करते हैं.
बहुत बार मुझे लगता है कि जीवन में इतिहास जैसा कुछ
नहीं है. हम इतिहास को जिस सन्दर्भ में
लेते हैं. कम से कम उस जैसा तो कुछ भी जीवन में कभी घटित ही नहीं होता. इस पहलू को
जब बड़ी बारीकी से सोचा तो मैं खुद पर बड़ा आश्चर्यचकित हुआ. आप भी इसे समझने की
चेष्टा करेंगे तो शायद आप भी मेरी तरह विस्मय से भर जायेंगे. इतिहास के सन्दर्भ
में हमारी मान्यता है कि जो कुछ घटित हो चुका है, और जिसकी पुनरावृति नहीं हो सकती,
वह इतिहास है. जिसे हम तथ्य और तर्क के आधार पर प्रमाणित करते हैं. हम
हमेशा इस बात पर बड़ा गर्व करते हैं कि हमारा इतिहास ऐसा है, हमारा इतिहास वैसा है.
लेकिन गहराई से देखें तो हमारा कोई इतिहास भी होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता. क्योँकि जीवन
जिस गति से चल रहा है वह तो हमेशा ही वर्तमान है. हम सब मानवीय विकास का हिस्सा है
और हमारा जन्म मानवीय लड़ी को आगे ले जाने की एक कड़ी मात्र है. हम बेशक अपने
पूर्वजों की लड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन अनुभव और अन्तर्यात्रा में हम अकेले
हैं. उनके अनुभव और हमारे अनुभव कभी एक जैसे नहीं होंगे. चाहे सन्दर्भ कोई भी हो.
उसमें इतिहास जैसा कुछ भी नहीं होगा. वहां हमेशा ही वर्तमान है और रहेगा.
यहाँ मैं जीवन में इतिहास जैसा कुछ नहीं है. इस पहलू पर सिर्फ मनुष्य की
अन्तर्यात्रा और उसके अनुभव के आधार पर अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा
हूँ. यहाँ मैं राजनीति, सभ्यता, संस्कृति,
शिल्प आदि के इतिहास पर बात करने के बजाय मनुष्य की अन्तर्यात्रा और इतिहास के
सन्दर्भ में हमारी सोच के विषय में बात करने का प्रयास कर रहा हूँ. जिसे हम इतिहास
कह रहे हैं, वह वास्तव में इतिहास जैसा लगता है. लेकिन वह भी एक समय वर्तमान का
हिस्सा रहा है, जो हमारे पूर्वजों के समय उनका वर्तमान था, आज वही हमारे लिए
इतिहास है. इतिहास की कहानी सिर्फ इतनी सी है. किसी समय किसी का वर्तमान आगे आने
वाली पीढ़ियों का इतिहास है. हम इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि हमारा वर्तमान किसी दिन
हमारा इतिहास होते हुए आने वाली पीढ़ियों का भी इतिहास होगा, और उनका वर्तमान उनकी
आने वाली पीढ़ियों का इतिहास होगा. यह क्रम तो चलता ही रहेगा और चल भी रहा है.
इतिहास हमेशा भूत का विषय है और वह सिर्फ घटना है, जो घटित हो चुकी है, और उस घटना
के घटित होने में उस समय के मनुष्य का कोई ज्यादा योगदान नहीं. हाँ यह जरुर है कि
सामूहिक रूप से वह घटना उसे दौर के हर मनुष्य से जुडी हो सकती है. हम उस घटना को
सुनकर थोडा सा अनुमान उस समय की परिस्थिति के विषय में लगा सकते हैं, लेकिन जिसने
उस घटना को झेला है उसका अनुभव अलग होगा, जिसने उस घटना को देखा होगा उसका अनुभव
अलग होगा, जिसने उस समय में उस घटना के विषय में सुना होगा उसका अनुभव अलग होगा और
जो उस घटना के लिए जिम्मेवार होगा उसका अनुभव अलग होगा.
अब देखें कि एक ही घटना के विषय में जितने लोग उतना
अनुभव, फिर इतिहास कैसे हो गया? इतिहास हो गया तो एक सा होना चाहिए, तर्क और तथ्य
पर खरा उतरने वाला. लेकिन यहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं है. फिर जीवन में इतिहास जैसा कुछ
कहाँ और कैसे होता है. वास्तव में हमारी यात्रा अकेले मंजिल पर पहुँचने की यात्रा
है, यह जितने भी संगी-साथी है, यह शरीर के साथ तक के साथी हैं. भीतर से हम
अद्वितीय हैं, अकेले हैं और सिर्फ वर्तमान हैं. हमारी यात्रा इतिहास की नहीं है, बल्कि
वर्तमान की यात्रा है, एक नैसर्गिक यात्रा है. यहाँ किसी घटना का अनुभव जरुर है,
लेकिन प्रमाण नहीं, इसलिए जीवन में इतिहास जैसा कुछ नहीं. सबका अपना-अपना बजूद है
और सब अपने अनुभव और दृष्टिकोण से अपने जीवन की यात्रा को तय करते हैं. मनुष्य का
हर अनुभव उसे एक नई सीख देता है और समझने वाला मनुष्य हमेशा उस अनुभव के आधार पर
खुद को परिष्कृत करता हैं. हम दूसरों के अनुभवों से सीखते जरुर हैं, लेकिन जीवन
बेहतर तब होता है जब हम स्वयं उस अनुभव से गुजरते हैं. लेकिन यहाँ यह भी समझना
जरुरी है कि किसी एक घटना के विषय में एक ही समय में अलग-अलग व्यक्ति के अलग-अलग
अनुभव होते हैं. जीवन की यात्रा इतिहास से जुडी यात्रा सिर्फ भौतिक स्तर पर है और
वह भी अपनी समझ की सुविधा के लिए, जीवन की वास्तविक यात्रा तो नैसर्गिक है,
अनिश्चित है, बिना इतिहास की है. शेष अगले अंक में...!!
यह एक अलग चिंतन है. अपने पूर्वजों को लेकर महिमा मंडित होने या हीन भाव से ग्रस्त होने का भी कोई औचित्य नहीं है.अपना पथ अपनी मंजिल वर्तमान के पुरुषार्थ पर आधारित है मगर फिर भी लोग अपने इतिहास से प्रभावित दिखते हैं. इसे व्यक्ति का अहम् या हीन भाव ही कहा जायेगा.
जवाब देंहटाएंस्व0मीनाकुमारी ने एक नज्म लिखा था. जिसका अंश कुछ ऐसा याद है मुझे ....
जमाना है माजी, जमाना है मुस्तकबिल और हाल एक वाहमा है. मैंने जिस लम्हें को छूना चाह, फिसल कर खुद बन गया एक माजी !
यहाँ आपके चिंतन से उलट चितन है. वे कहती हैं कि वर्तमान तो एक भरम है ! जिस लम्हें को छूना चाहां वो अतीत बन गया, इतिहास बन गया.
:)
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "छोटा शहर, सिसकती कला और १४५० वीं ब्लॉग बुलेटिन“ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंवैसे वर्तमान ही सब कुछ है, परंतु इस वर्तमान का भी अपना एक इतिहास होगा। भले ही वह वर्तमान इतिहास से प्रभावित न हुआ हो।
जवाब देंहटाएंवास्तव में हमारी यात्रा अकेली यात्रा है, यह जो जितने भी संगी साथी है, यह शरीर के साथ तक के साथी हैं. भीतर से हम अद्वितीय हैं, अकेले हैं और सिर्फ वर्तमान हैं. हमारी यात्रा इतिहास नहीं है, हमारी यात्रा वर्तमान है और एक नैसर्गिक यात्रा है.
जवाब देंहटाएंसही है. हम दूसरों के अनुभव से सीखते अवश्य हैं, लेकिन हर व्यक्ति के जीवन का अनुभव, दृष्टिकोण बिलकुल भिन्न होता है। गहन विषय पर बहुत ही सुन्दर चिंतन। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है। शुभकामनायें