हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति कभी किसी को दोष नहीं देती , लेकिन वह बदला भी आसानी से ले लेती है . इस दिशा में यूरोप को तो यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि 2003 में लू की चपेट में किस प्रकार 40 हजार लोग मरे थे . यह सिर्फ यूरोप की ही स्थिति नहीं है दुनिया के तमाम देशों में कमोबेश ऐसी स्थितियां उत्पन्न होती रहीं हैं . लेकिन ऐसी स्थितियों के लिए प्रकृति कम और मनुष्य ज्यादा जिम्मेवार है .
गत अंक से आगे……!
मनुष्य के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार ने उसके ही सामने कई विकट स्थितियां पैदा की हैं , ओजोन परत का क्षीण हो जाना और सूर्य की पराबैंगनी किरणों का उस तक पहुंचना और फिर इन किरणों के कारण उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर होना यह सब स्थितियां एक दूसरे से गहरा ताल्लुख रखती हैं . इधर कई वर्षों से यह कहा जा रहा है कि धरती का तापमान निरंतर बढ़ रहा है और अगर यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब धरती पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो सकती है . जल, जंगल और जमीन के अत्याधिक दोहन के कारण प्रकृति का सारा संतुलन बिगड़ गया है और हम हैं कि सिर्फ आंकड़े एकत्र करने में लगे हैं . कहीं पर ग्रीनहॉउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर अध्ययन किया जा रहा है तो कहीं पर अन्य कारणों पर चर्चा की जा रही है . लेकिन अगर परिणाम देखते हैं तो सब कुछ होने के बाबजूद भी परिणाम शून्य नजर आ रहे हैं .
अमेरिका के एक वैज्ञानिक ने तो कार्बनडाईऑक्साइड को कम करने के लिए कृत्रिम पेड लगाने का प्रस्ताव सरकार के सामने रखा है . लेकिन यह ज्यादा समझदारी होगी कि जितना श्रम और धन उन कृत्रिम पेड़ों को लगाने में लगेगा उसका आधा भी अगर हम प्राकृतकि पेड़ों को लगाने में खर्च करें तो वर्षों तक स्थितियां बेहतर बनायीं जा सकती हैं और दूसरी तरफ जितना श्रम और धन उन पेड़ों के रख रखाब पर खर्च होगा उतना ही ध्यान अगर अपनी मौजूदा प्राकृतिक सम्पदाओं पर देने की कोशिश करेंगे तो आने वाले समय में बेहतर प्रबंधन के साथ और आगे बढ़ते हुए काफी क्रांतिकारी परिवर्तन हासिल किये जा सकते हैं . क्योँकि प्राकृतिक सम्पदाओं का दोहन करते वक़्त हमें बात कभी नहीं भूलनी चाहिए कि हम अकेले ही नहीं हैं इस धरा पर, हमारे साथ - साथ इस धरती के प्रत्येक जीव को प्राकृतिक साधनों और सम्पदाओं की उतनी ही जरुरत है जितनी कि हमें है . वन्य प्राणियों का जीवन पेड पौधों पर आश्रित है , पेड पोधों का जीवन जल और वायु पर , इसी तरह से यह क्रम है और इस प्रकृति की प्रत्येक सता एक दूसरे से जुडी हुई है और सभी एक दूसरे पर आश्रित भी है . अगर कहीं पर कोई भी रिक्त स्थान आ जायेगा तो वह श्रृंखला टूट जायेगी और हम सदा - सदा के लिए के दूसरे से बिछुड़ जायेंगे , यानि मिट जायेंगे इसलिए समय रहते इस दिशा में सार्थक कदम उठाने की जरुरत है .
अब इस दिशा में कदम कौन उठाएगा यह विचारणीय है ? लेकिन मेरा मानना है कि इस दिशा में तो हमें सरकारों से किसी तरह की अपेक्षा करने की बजाए स्वयं कदम उठाने होंगे और इसके लिए अगर हम अपने गाँव या शहर या आसपास के लोगों को छोटे -छोटे समूहों में संगठित कर कार्य करेंगे तो शीघ्र ही उत्साहजनक परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं और अगर हर जगह ऐसा करने में हम सफल हो जाएँ तो वह दिन दूर नहीं जब हम फिर इस धरती के वातावरण को जीने लायक बना सकते हैं .
यह तो एक पहलू है प्रदूषण का मैंने जब प्राकृतिक प्रदूषण के पर विभिन्न पहलुओं पर विचार किया तो मेरे सामने बहुत विकट स्थितियां पैदा हुईं . हालाँकि जब भी मुझे इस विषय पर चर्चा करने का मौका मिलता है तो मैं बहत बैचैन होता हूँ . क्योँकि मुझे लगता है कि कहीं ना कहीं इस प्राकृतिक प्रदूषण की जड़ यह भी है और वह है मानसिक प्रदूषण और यह इतना खतरनाक और प्रभावी है कि इससे बचना अब बहुत मुश्किल हो गया है . हमारे मनों में इतनी दीवारें हैं कि हम एक दूसरे के विषय में सकारात्मक सोच ही नहीं पाते . जाति , भाषा , मजहब , धर्म , क्षेत्र ना जाने कितने वर्ग हैं जिनके आधार पर एक छोटे से क्षेत्र के लोग बंटे होते हैं , हालाँकि उन सबका जीवन एक जैसा होता है एक जैसे साधनों का उपयोग वह करते हैं फिर भी एक दुसरे से इतनी नफरत कि जैसे सामने वाला इनसान इस धरती का है ही नहीं और इस मानसिक प्रदूषण के परिणाम प्राकृतिक प्रदूषण से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं .
इस मानसिक प्रदूषण ने ऐसा वातावरण तैयार किया कि हम खुलकर बात करने की स्थिति में नहीं हैं . आये दिन ना जाने क्या - क्या घटित हो जाता है हमारे सामने और हम मूकदर्शक की भूमिका निभाते हुए आगे बढ़ रेहे हैं और अपना संवेदनाहीन जीवन जी रहे हैं . कुछ भौतिक साधनों का एकत्रण हमनें कर लिया है और उसे हम अपने जीवन की सफलता मानकर फूले नहीं समा रहे हैं . लेकिन वास्तविकता से कटकर जीना भी कोई जीना है ? कम से कम मेरी समझ में नहीं आता ! मानसिक प्रदूषण का प्रभाव हम पर इतना हावी है कि हम वास्तविकता को जाने बगैर आगे बढ़ रहे हैं . जो बातें किसी तरह का अस्तित्व नहीं रखती उन्हें मानकर उनका अनुसरण कर रहे हैं , जबकि प्रायः यह देखा जाता है कि ऐसी बातों का वास्तविक जीवन से कोई लेना देना नहीं होता , और जो लोग ऐसी बातें करते या उन्हें अपने जीवन में अपनाते हैं उनसे ही अगर पूछ लिया जाये तो वह भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं होते . तो फिर यही आभास होता है कि यह एक तरह का मानसिक प्रदूषण है जिसे हम अपना रहे हैं . हमनें कभी विविधता को स्वीकार नहीं किया और एकांगी और मानसिक रूप से प्रदूषित जीवन को हम जीते रहे और जीवन की इतिश्री इसी रूप में हो गयी और आने वाली पीढ़ी को भी वही प्रदूषित सोच हमनें सौंप दी . काश ! हम जीवन की उन्मुक्तता को समझ पाते, मर्यादा में रहते और जीवन के वास्तविक लक्ष्यों को पाने का प्रयास करते, मानसिक रूप से स्वस्थ जीवन जीते धरती के इस वातावरण को अपने मानसपटल से सुंदर बनाने का प्रयास करते ....लेकिन अभी तक ऐसा कोई चिराग नजर नहीं आता जो सभी के लिए रौशनी का कारण बन सके .
अगले अंक में भी जारी.....!
अगले अंक में भी जारी.....!
उपयोगी लेख,
जवाब देंहटाएंकाश अधिक से अधिक लोगों तक ऐसे आलेख पहुंचे और लोग पर्यावरण को बचाने के लिए अपने स्तर से जुट जाएं।
मै ऐसे लोगों को तलाशता हूं जो पर्यावरण को बचाने के लिए काम करते हैं। उन पर फिर पूरा प्रोग्राम बनाता हूं।
सच ही लिखा है आपने प्राकृतिक और मानसिक दोनों प्रकार के प्रदूषण से बचना है और आने वाली पीढ़ी को भी बचाना है |तभी जीवन सार्थक है ...!!
जवाब देंहटाएंप्रभावी आलेख .
आभार .
सचेत करती प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबहुत सच कहा है कि मानसिक प्रदूषण सारे समाज को दूषित करता जा रहा है...प्राकृतिक प्रदूषण के साथ साथ इस ओर भी हमें ध्यान देना होगा...बहुत सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा केवल जी हमें प्राकृतिक और मानसिक दोनों प्रकार के प्रदूषण से बचना है.. उपयोगी आलेख..
जवाब देंहटाएंइस वर्षा में सभी ब्लॉगर कम से कम 10 वृक्ष लगाने या लगवाने का संकल्प लें।
जवाब देंहटाएं..सुंदर पोस्ट।
कृतिम पेड़... सोच कर ही बुद्धिमानों की बुद्धि पर रोना आता है. भला पेड़ों का विकल्प कुछ हो सकता है...
जवाब देंहटाएंतूती तो नक़्कारखाने में भी बजाई ही जानी चाहिए
जवाब देंहटाएंवृक्ष जीवन के संक्षरक हैं..
जवाब देंहटाएंसामूहिक सोच को सुधारने की ज़रुरत है. इसके लिए सख्त कानून और उसका पालन होना चाहिए . विदेशों में सख्त कानून ही मनुष्य को अनुशासित रखता है .
जवाब देंहटाएंआजकल जिस तरह से एरकंडीशनर का प्रयोग बढ़ रहा है वह भी एक चिंता का विषय है. एरकंडीशनर में जो गैस का प्रयोग (सी एफ सी) पहले होता था वह ओजोन की चादर में छेद करती थी उसकी जगह पर अब एच सी एफ सी का प्रयोग होने लगा है जो ओजोन चादर को तो कम नुक्सान पहुंचाती है परन्तु वोर्मींग १६०० गुना ज्यादा करती है. खतरा अब चारों तरफ से बढ़ रहा है.
जवाब देंहटाएंप्राकृतिक और मानसिक दोनों प्रदूषण जीवन को प्रभावित करते हैं, आवश्यकता है, मानसिक रूप से स्वस्थ जीवन जीकर धरती के इस वातावरण को सुंदर बनाने की, इसके लिए सरकार से अपेक्षा करने की बजाय हमें मिलजुलकर उचित और सार्थक कदम उठाने चाहिए...
जवाब देंहटाएंसभी को इकट्ठे होकर अपने आस पास के परिसर को स्वच्छ करने का प्रयास करना चाहिए..प्रदुषण से होनेवाले नुकसान के बारे में लोगो को जागरूक करे..अपनी तरफ से कोशिश तो कर ही सकते है...
जवाब देंहटाएंsundar,sarthak post. badhai.
जवाब देंहटाएंप्रकृति के साथ छेड़-छाड़ का ही नतीजा है जो हम आज भुगत रहे हैं. और जब चेतेंगे तो काफी देर हो चुकी होगी.
जवाब देंहटाएंईश्वर बचाए तो बचाए. सार्थक व सुन्दर पोस्ट. आभार !
प्रकृति को सहेजना जीवन के लिए उपुक्त होगा .
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख .
जवाब देंहटाएंप्राकृतिक , सांस्कृतिक , मानसिक हर प्रकार के प्रदूषण से बचना अनिवार्य है .
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख !
आपके ब्लाग पर आना हुआ लेकिन ज्वाईन का ऑप्सन न होने के कारण निराश होना पडा ।
जवाब देंहटाएंबहुत हि सुन्दर ब्लाग है इसका पाठक बन गया हू
यूनिक तकनीकी ब्लाrग
विचारणीय लेख....हम अब भी चेत जाएँ तो अच्छा ....
जवाब देंहटाएंमानसिक प्रदूषण का तो कोई ईलाज ही नहीं है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सार्थक और उपयोगी लेख और सार्थक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंजगें तब तो सवेरा हो ...
जवाब देंहटाएंवह है मानसिक प्रदूषण और यह इतना खतरनाक और प्रभावी है कि इससे बचना अब बहुत मुश्किल हो गया है हमारे मनों में इतनी दीवारें हैं कि हम एक दूसरे के विषय में सकारात्मक सोच ही नहीं पाते . जाति , भाषा , मजहब , धर्म , क्षेत्र ना जाने कितने वर्ग हैं जिनके आधार पर एक छोटे से क्षेत्र के लोग बंटे होते हैं....
जवाब देंहटाएंक्या बात है बहुत ही बढ़िया आलेख लिखा प्रदूषण पर ....
मैं तो कोशिश करती हूँ अपने आस पास हरियाली उगाने की .....