आजकल देश के हर भाग में भीषण गर्मी पड़ रही है . मौसम विज्ञान विभाग हर दिन तापमान बढ़ने के आंकड़े जारी करता है , और साथ में यह भी चेतावनी देता है कि आने वाले दो दिनों में पारा उंचाई की तरफ जाने वाला है तो इंसान त्राहि - त्राहि करने लगता है . इंसान ही क्योँ धरती का हर जीव इस भीषण गर्मी की चपेट में खुद को असहज महसूस करता है . एक तरफ इंसान ने विकास के नाम पर जल , जंगल, जमीन और प्राकृतिक संपदाओं का अंधाधुंध दोहन किया और दूसरी तरफ उसे बचाने और संवारने के कोई प्रयास नहीं किये . विकास की इस अंधी दौड़, भौतिक साधनों और सुखों के मोह ने उसे इतना पंगू बना दिया कि अपनी चिर सहचरी प्रकृति के विषय में सोच ही नहीं पाया, उसने उसका दोहन तो आवशयकता से कई गुणा ज्यादा किया, लेकिन जब सरंक्षण और उसे सहेजने की बारी आई तो वह सिर्फ बातें ही करता रहा , योजनायें ही बनाता रहा, नियमों में ही उलझता रहा . आज जो हालात हमारे सामने हैं वह बहुत भयावाह दृश्य हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं और यह चेतावनी भी देते हैं कि आने वाली पीढ़ियों के लिए किसी भी प्रकार से सुरक्षित नहीं है यह धरती ? एक तरफ तो प्रदूषण बढ़ रहा है और दूसरी तरफ इनसान - इनसान से इतना त्रस्त है कि उसने उसके अस्तित्व को मिटाने की ठान ली और सुरक्षा के नाम पर इतने हथियारों का आविष्कार किया कि आज दुनिया बारूद के ढेर पर खड़ी दिखाई देती है . इतना सब कुछ कैसे हुआ ? आखिर जिस दिशा की तरफ हम बढे क्या उसकी जरुरत और महता है ? क्या जो दिशा हमने तय की है हमें अब भी इस तरफ बढ़ना चाहिए या फिर पुनः प्रकृति के करीब रहकर प्राकृतिक जीवन जीना शुरू करना चाहिए ? ऐसे कई प्रश्न हैं जिन पर गंभीरता से सोचने की जरुरत है , और वैसे तो अब समय निकल गया है लेकिन फिर भी अगर मिलजुल कर प्रयास किये जाते हैं तो देर से ही सही हम इस वातावरण में कुछ तो तबदीली लाने में सफल हो सकते हैं . लेकिन यह किसी एक हाथ से होने वाला नहीं है इसके लिए तो बिना कोई देर किये हर एक इनसान को जुट जाने की आवश्यकता है . हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि आज जिन प्राकृतिक संपदाओं का दोहन हम कर रहे हैं वह हमें हमारे पूर्वजों की देन है , अब हमारा कर्तव्य बनता है कि हम भी आने वाली पीढ़ियों के लिए इस प्राकृतिक संपदा को सहेज कर रखें और जितना भी संभव हो सकता है इसे और बढाने का प्रयास करें .
आज धरती के वातावरण को जब हम देखते हैं तो एक अजीब सा अहसास होता है . ऐसे लगता है कि हम प्रकृति से कोसों दूर चले गए हैं, हमारे जहन में प्रकृति के लिए कोई प्रेम नहीं रहा, अब हम भौतिक साधनों के इतने गुलाम बन गए हैं कि प्रकृति के करीब रहकर जीवन जीने की कल्पना ही नहीं कर सकते . बस यहीं से घुटन और टूटन शुरू होती है और आज जिस कगार पर हम खड़े हैं वह आने वाले समय में निश्चित रूप से मानवीय अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी है . हमारे पूर्वजों ने जीवन जीने की जो पद्धति हमें सिखाई थी हम उसे तो भूल ही गए , अब हम वातानुकूलित वातावरण को तरजीह दे रहे हैं और यह भूल गए हैं कि इस वातानुकूलित वातावरण के लिए भी तो प्रकृति का साथ चाहिए , वर्ना हमारे सारे प्रयास निष्फल सिद्ध होंगे और हो भी रहे हैं . हमनें प्रकृति को भूलकर जब जीवन जीने की सोची तो इसने भी हमें भुलाना शुरू कर दिया और आये दिन प्रकृति के कोपों का भाजन हमें करना पड़ता है . कहीं पर भीषण गर्मी पड़ रही है तो , कहीं पर बाढ़ और तूफ़ान आ रहे हैं , कहीं पर लोग वर्षा के लिए तरस रहे हैं तो कहीं उसके रोकने के प्रयास किये जा रहे हैं . सब कुछ एकदम सोच, समझ और जरुरत के उलट घट रहा है . यह प्रकृति की चेतावनियाँ हमारे लिए हैं लेकिन हम हैं कि सब कुछ नजरअंदाज कर बस आगे बढ़ने की होड़ में लगे हैं और इसी होड़ के परिणाम आज धीरे - धीरे हमारे सामने आ रहे हैं . आने वाला कल कैसे होगा यह सोच जा सकता है , और अगर उस कल को बेहतर बनाना है तो आज से बिना देर किये ही गंभीर और लक्ष्य तक पहुंचाने वाले प्रयास किये जाने आवश्यक हैं .
यहाँ जब हम इनसान की जीवन शैली को देखते हैं तो और भी कई बातें उभर कर सामने आती हैं जिन पर उसे पुनर्विचार करने की आवश्यकता है . अगर हम पर्यावरणीय प्रदूषण को ही विश्लेषित करने का प्रयास करें तो हमारे सामने कई चौकांने वाले तथ्य उभर कर सामने आते हैं . ऐसा नहीं है कि पर्यावरण पर कोई बहस नहीं होती , उसे बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किये जाते , इस दिशा में कोई बात नहीं करता या फिर किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जाता . जहां तक मैंने अध्ययन किया है तो ऐसा सब कुछ तो वर्षों से किया जाता रहा है . विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून हर वर्ष) भी मनाया जाता है , और धरती दिवस (22 अप्रैल हर वर्ष) भी . लेकिन फिर भी इन दोनों को सहेजने की कबायद कितनी आगे बढ़ पाई है यह सबके सामने है . क्योटो प्रोटोकोल और कानकुन एग्रीमेंट जैसे प्रयास भी सामने आये लेकिन कोई परिवर्तन होने की बजाए स्थितियां निरंतर बिगडती रहीं . करीब 20 साल पहले 1992 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज बना था . तभी से ही जलवायु परिवर्तन के उपायों पर चर्चा होनी शुरू हुई थी . अगर हम गंभीरता से विचार करें तो यह तथ्य सामने आता है कि इन 20 सालों में जो कुछ हमें हासिल करना चाहिए था वह नहीं कर पाए . क्योँकि इस दिशा में जो भी कार्य हुआ वह सिर्फ नीतिगत स्तर पर ही हुआ जमीनी धरातल पर उसका क्रियान्वयन किया जाना बाकी है . इन सब घटनाओं और प्रयासों पर अगर विचार करें तो यहाँ भी एक तरह का प्रदूषण ही फैलाया जा रहा है . क्लाइमेट चेंज के नाम पर राजनीति हो रही है . जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी वैश्विक बैठकें बेमानी साबित होती जा रहीं हैं , क्योँकि इन बैठकों में जो चर्चा होती है वह समस्या पर नहीं बल्कि आमिर देशों के हितों पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित होती है . कभी - कभी तो ऐसा महसूस होता है कि यह वैश्विक फोरम गरीब बनाम अमीर देशों की लड़ाई का मोर्चा बनता जा रहा है . लेकिन इस लड़ाई का नुक्सान तो दोनों तरह के देशों को भुगतना पड़ेगा और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति कभी किसी को दोष नहीं देती , लेकिन वह बदला भी आसानी से ले लेती है . इस दिशा में यूरोप को तो यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि 2003 में लू की चपेट में किस प्रकार 40 हजार लोग मरे थे . यह सिर्फ यूरोप की ही स्थिति नहीं है दुनिया के तमाम देशों में कमोबेश ऐसी स्थितियां उत्पन्न होती रहीं हैं . लेकिन ऐसी स्थितियों के लिए प्रकृति कम और मनुष्य ज्यादा जिम्मेवार है .
कुछ बिंदु अगले अंक में ....!
कुछ बिंदु अगले अंक में ....!
शीतलता देने वाले वृक्षों को काटेंगे तो सब तपेगे..
जवाब देंहटाएंस्थिति चिंताजनक है। नियंत्रण से बाहर जाने से पहले ही प्रभावी क़दम उठाना ज़रूरी है।
जवाब देंहटाएंगंभीर चिंतन।
जवाब देंहटाएंसरकारें गाल बजाने से ज़्यादा कुछ नहीं कर रही हैं
जवाब देंहटाएंhttp://bulletinofblog.blogspot.in/2012/06/6.html
जवाब देंहटाएंसरकार के साथ हम भी दोषी है,
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रस्तुति ,,,,,
RECENT POST ,,,,,पर याद छोड़ जायेगें,,,,,
सबसे बड़ी समस्या है कि हम सरकार पर ही निर्भर हो जाते हैं। कुछ कर्तव्य नागरिकों के भी बनते हैं। जिन्हे निभाना चाहिए। पर्यावरण के प्रदूषण रोकने के लिए नागरिको को जागरुक होना पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंसबसे बड़ी समस्या है कि हम सरकार पर ही निर्भर हो जाते हैं। कुछ कर्तव्य नागरिकों के भी बनते हैं। जिन्हे निभाना चाहिए। पर्यावरण के प्रदूषण रोकने के लिए नागरिको को जागरुक होना पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंआवश्यक जानकारी देती रचना |
बधाई केवल जी ||
स्थिति बहुत ही चिंताजनक है। इसके लिए हम सब भी दोषी है...सार्थक प्रस्तुति ,,,,,
जवाब देंहटाएंहम अपने ही अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं ....... विचारणीय विषय पर बात की ....
जवाब देंहटाएंगत सप्ताह मसूरी में देखा -- सरकार तो अपना काम बखूबी कर रही है . भूस्खलन हुए पहाड़ों पर नए पेड़ लगाये गए हैं . लेकिन मनुष्य अपनी आदत नहीं बदलता . कहीं भी बेदर्दी से प्लास्टिक की थैलियाँ फैंक देते हैं .
जवाब देंहटाएंसुन्दर सार्थक लेख .
विचारणीय , सार्थक प्रस्तुति ,,,,,
जवाब देंहटाएंप्रकृति कभी किसी को दोष नहीं देती , लेकिन वह बदला भी आसानी से ले लेती है .
जवाब देंहटाएंयही बात जितनी जल्दी समझ ली जाय अच्छा है. प्रकृति से छेड़छाड़ कितनी भयानक हो सकती है, इसके उदाहरण भी समय समय पर मिलते रहते हैं.
अगर ऐसा ही चलता रहा तो स्थिती विकट हो जाएगी...
जवाब देंहटाएंहमें अपनी ओरसे भी प्रयास करना चाहिए...
सार्थक रचना...
अच्छा और सार्थक चिंतन
जवाब देंहटाएंपर हम सबको भी अपने अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी।
पर्यावरण के बिगड़े हालत चिंता का विषय है... आदमी भौतिकवादी हो गया है.. वह सिर्फ प्रकृति का दोहन कर रहा है...
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बेहतरीन रचना
केरा तबहिं न चेतिआ, जब ढिंग लागी बेर
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ संडे सन्नाट, खबरें झन्नाट♥
♥ शुभकामनाएं ♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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सार्थक प्रस्तुति ,,,,,
जवाब देंहटाएंहम नहीं सुधरेंगे ...ना जानेंगे ..
जवाब देंहटाएंजब जलेंगे तब देखेंगे !
:(
बिलकुल सही है यदि हमें अपने उस कल को बेहतर बनाना है तो आज से बिना देर किये ही गंभीर और लक्ष्य तक पहुंचाने वाले प्रयास किये जाने आवश्यक हैं, वर्ना सब कुछ निकल चुका होगा हमारे हाथों से और हम चाह कर भी कुछ ना कर सकेंगे...
जवाब देंहटाएंsaarthak lekhan
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन केवल राम जी
जवाब देंहटाएंपर इसके लिए नागरिको को सरकार पर निर्भर होने के बजाये नागरिको को अपने आप जागरुक होना चाहिए !!!
आज के समय की महती आवश्यकता पर आपने ध्यान खींचा है. समय रहते ही प्रभावी कदम उठाना जरूरी है, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सार्थक और सामयिक पोस्ट , आभार .
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारकर अपना स्नेह प्रदान करें, आभारी होऊंगा .
बहुत ही सार्थक चिंतन आपकी लिखी सभी बातों से पूर्णतः सहमति है। प्रकृति के नियमों के विपरीत जाकर आज तक कोई सुखी नहीं रहा है न रहेगा तो यह विनाश तो होना ही है जरूरत है साथ मिलकर इस ओर कदम बढ़ाने की कुछ कर दिखाने की, इस मामले में अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है। सरकार को भी आगे आना होगा और कुछ सख़्त नियम बनाने होंगे। जिनका पालन करना हर नागरिक के लिए आनिवार्य हो और हर नागरिक उस नियम के महत्व को समझे और पूरी ईमानदारी के साथ उसका पालन करे तभी कुछ हो सकता है। वरना विनाश की राह पर तो हम चल ही रहे है और वो दिन दूर नहीं जब दुनिया खत्म हो जाएगी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति ..बधाई। मेरे नए पोस्ट "अतीत से वर्तमान तक का सफर" पर आपका स्वागत है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआज ही पढ़ा कि अमेरिका में पचास सालों का रिकार्ड टूटा है..सूखे का..
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