काश ! हम जीवन की उन्मुक्तता को समझ पाते, मर्यादा में रहते और जीवन के वास्तविक लक्ष्यों को पाने का प्रयास करते, मानसिक रूप से स्वस्थ जीवन जीते धरती के इस वातावरण को अपने मानसपटल से सुंदर बनाने का प्रयास करते ....लेकिन अभी तक ऐसा कोई चिराग नजर नहीं आता जो सभी के लिए रौशनी का कारण बन सके .
गतांक से आगे .....!
आज के परिप्रेक्ष्यों पर विचार किया जाये तो बहुत गंभीर सवाल हमारे सामने खड़े होते हैं . कोई ऐसा चिराग सच में नहीं जो आम व्यक्ति का आदर्श हो , जिसका अनुसरण किया जाये , हम जिसके विचारों पर मंथन कर सकें , सब और शोर ही शोर है . ऐसे हालात में आम व्यक्ति क्या करे उसके सामने बड़े अँधेरे रास्ते हैं और उनकी मंजिलें कहाँ तक जाती हैं यह उसे मालूम नहीं . मानसिक प्रदूषण के साथ - साथ यहाँ वैचारिक प्रदूषण बहुत तेजी से फ़ैल रहा है और उसे फ़ैलाने के लिए लोग तरह - तरह के साधनों का प्रयोग करते हैं . इस वैचारिक प्रदूषण के कई आयाम हैं और यह सबसे खतरनाक साबित हो रहा है . लोग गुटों में बंट रहे हैं , हर तरफ अस्थिरता का माहौल है और इन दूषित विचारों के कारण दिन प्रतिदिन हमारे देश और समाज की तस्वीर बदल रही है और इसके भयंकर परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं . व्यवस्था चाहे कोई भी हो सब जगह विचारों की टकराहट है. किसी हद तक तो यह होनी भी चाहिए लेकिन जब यही विचार टकराकर आग का रूप ले लेते हैं , जानमाल का नुक्सान करते हैं , आदमी का शोषण करते हैं , उसे मानसिक क्षति पहुंचाते हैं तो फिर ऐसे विचारों का क्या किया जाए ??? यह सबसे बड़ा सवाल है हम सबके सामने और इसका उत्तर भी हम सभी को खोजना है , लेकिन इस दिशा में बढ़ने की बजाय हम उल्टी दिशा में बढ़ रहे हैं और अगर यही हालात रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हम अपना अस्तिव खो देंगे .
आज हर स्तर पर वैचारिक प्रदूषण देखने को मिलता है . हम अपनी राजनीतिक , सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को देख लें सब जगह वैचारिक प्रदूषण देखने को मिलता है . यहाँ जितनी भी व्यवस्थाएं हैं यह सब हमारे उत्तम विचारों की व्यवस्थाएं हैं . लेकिन आप किसी भी व्यवस्था का गहराई से आकलन करें तो वह अपने लक्ष्यों की तरफ हमें नहीं बढाती हुई लगती है . राजनीति की अगर हम बात करें तो इसका तो सबसे बुरा हाल है . हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि शासन व्यवस्था और राजनीति बेशक एक दूसरे से गहरे से जुड़े होते हैं लेकिन क्रियात्मक रूप से यह दोनों अलग हैं . लेकिन आज के दौर में जो राजनीति करता है, जिसकी सत्ता होती है, वह शासन को अपने अनुकूल बना देता है और यहीं से गड़बड़ शुरू हो जाती है और हो रही है . राजनीतिज्ञों और प्रशासकों की सांठगाँठ ने आम व्यक्ति का जीना दूभर कर दिया है . अगर हमारे पास स्वस्थ विचार होता तो हम कदापि ऐसा नहीं करते . दूसरी बात राजनीति की कोई स्पष्ट दिशा नहीं और राजनेता का कोई चरित्र नहीं, ऐसे में एक व्यक्ति ही समूची राजनीति को प्रभावित कर रहा है . सबके अपने - अपने स्वार्थ हैं और सभी मौके की तलाश में हैं कि कब उन्हें लोगों और इस देश को लूटने का अवसर प्राप्त हो . इससे गन्दी राजनीति और क्या हो सकती है ? यह सब हमारे विचारों के कारण है . हमारे यहाँ जितनी भी राजनितिक पार्टियाँ अस्तित्व में हैं वह देश और समाज को नई दिशा देने के नज़रिये से नहीं , बल्कि अपने स्वार्थों के कारण अस्तित्व में हैं. किसी का भी कोई चरित्र नहीं जिसको जहाँ जैसे अवसर प्राप्त हो रहा है वह अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहा है .
समाज व्यक्तियों से बनता है , व्यक्ति समाज की एक सशक्त ईकाई है लेकिन आज जैसे - जैसे व्यक्ति का नैतिक पतन हो रहा है वैसे - वैसे समाज रुपी यह व्यवस्था समाप्त होती जा रही है . संकीर्ण विचारों ने व्यक्ति को आत्मकेंद्रित बना दिया है उसे अपने सिवाय किसी से कुछ लेना देना नहीं , उसे यह आभास नहीं कि उसके पड़ोस में क्या हो रहा है . वह अपने आसपास की हलचल से कोई मतलब नहीं रखना चाहता . उसका मतलब तो सिर्फ वहां है जहाँ उसका स्वार्थ पूरा हो रहा है . दूसरी तरफ हमारी सोच के कारण हमारे समाज में कई कुरीतियाँ आ गयी हैं . कन्या भ्रूण ह्त्या , दहेज के लिए किसी अबला का कत्ल, किसी नारी के शोषण की दास्ताँ , ऐसे कई पहलू हैं जो सीधे ही हमारे समाज से जुड़े होते हैं . लेकिन आज हमारे विचारों के कारण सामाजिक नाम की यह संस्था ही समाप्त होती जा रही है . धर्म से व्यक्ति का कोई लेना देना नहीं रह गया है . उसे आचरण से कोई सरोकार नहीं और जो धर्म के प्रतिनिधि हैं वह भी इसे सही दिशा की तरफ ले जाने के बजाय इसे पतन की तरफ ले जा रहे हैं . यहाँ तो हर जगह नित्यानंद , निर्मल बाबा और ना जाने क्या - क्या पैदा हो रहे हैं . धर्म जो व्यक्ति को जीने की कला सिखाता था . वही आज गर्त में जा रहा है और लोग हैं कि अंधश्रद्धा के वशीभूत होकर अपना सब कुछ लूटा रहे हैं और यह जो लोग खुद को बड़ा भक्त कह रहे हैं वह भी एक स्वार्थ के कारण ऐसे लोगों से जुड़े हैं , भौतिक साधनों की प्राप्ति के लिए , मतलब सोच और विचार दोनों तरफ से गलत . ऐसे में किसी से क्या आशा कर सकते हैं ?
अर्थ की तो बात ही छोडिये जिसको जैसे मौका मिल रहा है वह इसका अर्जन कर रहा है . जीवन चलाने के लिए पूँजी की आवश्यकता होती है , यह तो सबकी समझ में आता है . लेकिन पूँजी के लिए जीवन का सब कुछ दावं पर लगा देना कैसी समझदारी है ?? आज इस देश में कोई ऐसा नजर नहीं आता जो गलत तरीकों से धन अर्जन की अपेक्षा नहीं रखता हो . यानि के हमारे विचारों में बहुत परिवर्तन आ गया है हम उत्तम विचारों से गिर रहे हैं . साहित्य की तो बात ही छोडिये यहाँ भी स्थिति ठीक नहीं है . कहीं पर पूरी कायनात को अपनी अभिव्यक्ति का हिस्सा बनाने वाला रचनाकार अब दलित विमर्श , स्त्री विमर्श , आदिवासी विमर्श की कल्पित धारणाओं तक ही सीमित हो गया है और कुछ लोग विचारधाराओं के नाम पर उल जलूल लिखने से भी नहीं हिचक रहे हैं . और दूसरी तरफ मनोहर कहानियां , जीजा साली के किस्से, अखबारों में छपते काम शक्ति बढाने के विज्ञापन सब खोखला कर रहे हैं इस देश को ??
संगीत में पॉप कल्चर के नाम पर कुछ भी गाया जा रहा है और फिल्मों में देह दिखाने के आलावा कोई दृष्टि नहीं बची है , चित्रकार देवी देवताओं की नग्न और अश्लील तस्वीरें बनाकर क्या दिखाना चाह रहे हों यह समझ से बाहर की बात है . इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया भी अपने तरीके से प्रदूषण फ़ैलाने की भूमिका निभा रहा है . कोई नेता जब किसी को गाली देता है तो वह इनके समाचारों की हेडलाइन बन जाती है . इधर कुछ वर्षों से ब्लॉगिंग को अभिव्यक्ति की नयी क्रांति या स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का माध्यम माना जा रहा था . लेकिन यहाँ भी कुछ लोग ऐसे आ गए हैं जो अपने तरीके से इसे प्रदूषित कर रहे हैं .
अगर जिसे देश की राजनितिक , सामाजिक , धार्मिक और आर्थिक स्थिति ही दयनीय हो कोई स्पष्ट विचार जहाँ ना हो वहां की संस्कृति क्या हो सकती है ? यह बड़ा विचारणीय पहलू है . अगर जहाँ कोई संस्कृति ही ना हो वहां फिर प्रदूषण के सिवा क्या हो सकता है ? अब हर जगह प्रदूषण ही प्रदूषण है तो जी लो कैसे जीना है आपको , एक तनाव भरे माहौल में संभवतः ऐसे में खुद को पाक साफ़ रखना ही एक बड़ी चुनौती है और जो अपने दामन को पाक साफ़ रखकर जीवन जी रहा है समझो वह बड़ी उपलब्धि हासिल कर रहा है . उसका जीवन किसी चमत्कार से कम नहीं .
सार्थकता लिए सटीक लेखन ...
जवाब देंहटाएंकेवल जी,
जवाब देंहटाएंबहुत ही विचारनीय लेख है ,पर धर्म कर्म की बातें तो अब किताबों में ही रह गयी है !लोगो को तो बस पैसा चाहिए चाहे उसके कमाने का तरीका कुछ भी हो !
बिल्कुल सही कहा आपने..
जवाब देंहटाएंआपकी हर बात से सहमत हू।
काश ये लेख उन लोगों तक भी पहुंच जाए जिनको इसकी शख्त जरूरत है, जो सच में दिमागी तौर पर दिवालिया हो चुके हैं और कुछ भी लिखते रहते हैं।
जब तक विचारों की सारी उपधारायें एक दिशा में नहीं बढ़ेंगी तब तक गति आ ही नहीं सकती है..
जवाब देंहटाएंवैचारिक शुद्धिकरण की शख्त आवश्यकता है. आभार
जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक वैचारिक आलेख ,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST...: दोहे,,,,
बहुत ही विचारणीय सशक्त और सार्थक आलेख..
जवाब देंहटाएंकिया भी क्या जाए ... हज़ारों साल से ऐसे ही चलता चला आ रहा है
जवाब देंहटाएंआपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १०/७/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आप सादर आमंत्रित हैं |
जवाब देंहटाएंसशक्त, विचारणीय और सार्थक पोस्ट ...
जवाब देंहटाएंआप सही कह रहे है. वैचारिक प्रदूषण भी सामाजिक वातावरण को प्रदूषित कर रहा है और बहुत तेजी से. अन्य प्रदूषणों से तो निपटने के इंतज़ाम भी हो रहे है परन्तु इसका ???
जवाब देंहटाएंजीवन चलाने के लिए पूँजी की आवश्यकता होती है , यह तो सबकी समझ में आता है . लेकिन पूँजी के लिए जीवन का सब कुछ दावं पर लगा देना कैसी समझदारी है ??
जवाब देंहटाएंवैचारिक प्रदूषण में यह सोच कई समस्याओं के लिए जिम्मेदार है.... सार्थक लेख
sarthak nd satih lekh ...
जवाब देंहटाएंप्रदूषण हर हाल में नुकसानदेह होता है चाहे वह वैचारिक प्रदूषण ही क्यों न हो, जहाँ तक मीडिया का सवाल है वह तो वही परोसता है ना जो ज्यादा पसंद किया जाता है, कहीं ना कहीं दोष हमारा ही है, हमें ही बदलना होगा अपने आप को. विचारणीय आलेख
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन !
जवाब देंहटाएंचिंतनीय चिंतन।
जवाब देंहटाएंbahut sahi... aapke post se lag jata hai ki kitna mehnat kiya gaya hai.. abhar!
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