वैसे तो
परम्पराओं के प्रति आकृष्ट होना कोई बुरी बात नहीं है,
वह हमारे जीवन और आधार का हिस्सा हैं, हमें
उनका निर्वाह करना चाहिए, लेकिन वक़्त और हालात को देखते हुए,
उनकी प्रासंगिकता और व्यावहारिकता को देखते हुए. वर्ना हममें इतना
भी साहस होना चाहिए कि हम उन पुरानी, अव्यवहारिक और जर्जर परम्पराओं को उखाड़ फेंकने की हिम्मत
भी कर सकें. गतांक से आगे..
जब तक हम
समाज से कटी हुई और अव्यावहारिक परम्पराओं का पालन करते रहेंगे तब तक किसी बदलाव
की आशा करना बेमानी है. हम अपने चारों और नजर दौड़ा कर देखें तो हम सहज में ही समझ
जायेंगे कि हम कितनी व्यवहारिक चीजों का अनुसरण कर रहे हैं और कितनी ऐसी चीजें हैं
जिनके विषय में न जानते हुए भी हम उनके प्रति आकृष्ट हैं. हमारे समाज में ऐसी बहुत
सी जर्जर और अव्यावहारिक मान्यताएं हैं जो हमें प्रगति के पथ पर आगे नहीं बढ़ने
देती और कुछ तो ऐसी हैं जिनसे व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान रहता है.
लेकिन व्यवस्था ही कुछ ऐसी हैं कि हमें उनका पालन करना पढता है, और कहीं पर हमें
उसका पालन करने के लिए मजबूर भी कर दिया जाता है. हम एक विस्तृत और बहुविध देश के
वासी हैं. यहाँ हर चार कदम पर नयी बोली, नया पहरावा, अलग सा खान-पान, जुदा सा रहन-सहन
देखने को मिल जाता है और यही इस देश कि विशिष्टता भी है. विविधता में एकता इस देश
की एक अन्यतम विशेषता है. वहीं दूसरी और इस देश में ऐसा भी है कि किसी व्यक्ति को
उंचा माना जाता है, किसी को नीचा, किसी को मंदिर के आधार पर बाँट दिया तो किसी को
मस्जिद के आधार पर, कोई हिन्दू हो गया, तो
कोई मुसलमान, यह क्रम बहुत बड़ा है, इसमें विविधता भी है. लेकिन किसी भी स्तर पर
कोई एकता नहीं. सब जगह बंटवारा है, नफरत है, वैर है, द्वेष है और यह आज की बात
नहीं यह हजारों वर्षों से यूं ही चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा जब तक कि इस
घृणित मानसिकता को मजबूती देने वाले लोग इस धरती पर मौजूद रहेंगे.
एक तरफ
घृणित मानसिकता को मजबूती देने वाले लोग और दूसरी तरफ समभाव की दृष्टि अपनाने वाले
लोग, एक तरफ मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने वाले लोग,
और दूसरी तरफ अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए आम लोगों को भड़काने वाले लोग, दोनों
इस समाज का हिस्सा हैं और दोनों एक ही समाज में रहते हैं. लेकिन एक समाज में नफरत
फैलाने के लिए प्रयासरत हैं तो, दूसरे उसे मिटाने के लिए, लेकिन बहुत गहरे में
उतरकर देखते हैं तो समझ आता है कि बदलाव को पसंद करने वाले लोग बहुत कम हैं, और
इससे भी बड़ी बात यह है कि वास्तविक बदलाव के लिए प्रयास करने वाले व्यक्ति तो न के
बराबर हैं. हम इतिहास में देखते हैं कि कलिंग के यूद्ध के बाद अशोक की जीवन दृष्टि
बदल गयी और वह बुद्ध का अनुयायी बनकर बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा प्रचारक सिद्ध हुआ,
यह बदलाव को अपनाने और उसके लिए प्रयत्न करने के कारण ही संभव हुआ. बदलाव की सिर्फ
एक आहट हुई और उस आहट को सुनकर एक सम्राट का हृदय परिवर्तित हो गया और वह चल पडा
उस राह पर जिस राह पर चलकर मानव-मानव का हितैषी बन जाता है, मानव-मानव के करीब आ
जाता है. इतिहास में ऐसे कई उदहारण हैं जब अव्यावहारिक परम्पराओं को उखाड़ फैंकने
के लिए प्रयास हुए, लेकिन सफलता का प्रतिशत कितना है यह हम सबके सामने है.
हमें यह
आशा तो नहीं करनी चाहिए कि सारे संसार में रहने वाले व्यक्ति समदृष्टि को अपनाकर,
मानवीय
भावनाओं को अपने जीवन का हिस्सा बनाकर चलेंगे. ऐसा तो संभव नहीं और खासकर आज की तारीख में तो और भी नहीं, लेकिन प्रयास तो किया जा सकता है और हम सब उस प्रयास के भागीदार तो बन ही सकते हैं. वैसे उपरी तौर पर देखें तो ऐसा लगता है कि दुनिया एक द्रुत गति के बदलाव से गुजर रही है, और सबसे ज्यादा यह शिक्षा दी जा रही है कि मनुर्भवः (मनुष्य बन जाओ), आये दिन हर जगह ऐसा देखने को मिल जाता है कि जब कोई लाखों की भीड़ के सामने इस सन्देश को प्रचारित कर रहा हो और वह भीड़ इस सन्देश को सुनकर झूम रही हो. आज इस दुनिया में बदलाव लाने वाले एक-दो नहीं बल्कि हजारों की संख्या में हैं और आये दिन गाजर-मूली की तरह पैदा भी हो रहे हैं. कोई धर्म की शिक्षा दे रहा है, कोई अध्यात्म की बात कर रहा है, कोई भ्रष्टाचार को मिटाने की तरकीबें बता रहा है, किसी के सिर पर राष्ट्रवाद का भूत सवार है तो कोई कह रहा है कि अमुक विचारधारा और वर्ग के लोगों को अगर मिटा दिया जाए तो सब समास्याओं का समाधान हो सकता है, कोई यह भी कह रहा है कि यह जो कुछ भी दिखाई दे रहा है सब माया है, तुम क्या लाये थे, क्या ले जाओगे पर गहन मंथन कर रहा है, और कोई राम-कृष्ण की कथा के माध्यम से प्रेरणा दे रहा है, कोई जीने के गुर सिखा रहा है ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’. कोई मंदिर जा रहा है, कोई मस्जिद और कोई चर्च में, कोई अखंड पाठ कर रहा है तो कोई निरंतर जाप. सतही तौर पर ऐसा दृश्य हमारे सामने तैयार है कि अब मुझे ऐसा सोचने का मन करता है कि इस दुनिया से बेहतर कुछ भी नहीं. सब एक दम बदल रहा है और हजारों लोगों की दिन रात की मेहनत का परिणाम निश्चित रूप से एक सुन्दर से संसार का निर्माण करेगा.
भावनाओं को अपने जीवन का हिस्सा बनाकर चलेंगे. ऐसा तो संभव नहीं और खासकर आज की तारीख में तो और भी नहीं, लेकिन प्रयास तो किया जा सकता है और हम सब उस प्रयास के भागीदार तो बन ही सकते हैं. वैसे उपरी तौर पर देखें तो ऐसा लगता है कि दुनिया एक द्रुत गति के बदलाव से गुजर रही है, और सबसे ज्यादा यह शिक्षा दी जा रही है कि मनुर्भवः (मनुष्य बन जाओ), आये दिन हर जगह ऐसा देखने को मिल जाता है कि जब कोई लाखों की भीड़ के सामने इस सन्देश को प्रचारित कर रहा हो और वह भीड़ इस सन्देश को सुनकर झूम रही हो. आज इस दुनिया में बदलाव लाने वाले एक-दो नहीं बल्कि हजारों की संख्या में हैं और आये दिन गाजर-मूली की तरह पैदा भी हो रहे हैं. कोई धर्म की शिक्षा दे रहा है, कोई अध्यात्म की बात कर रहा है, कोई भ्रष्टाचार को मिटाने की तरकीबें बता रहा है, किसी के सिर पर राष्ट्रवाद का भूत सवार है तो कोई कह रहा है कि अमुक विचारधारा और वर्ग के लोगों को अगर मिटा दिया जाए तो सब समास्याओं का समाधान हो सकता है, कोई यह भी कह रहा है कि यह जो कुछ भी दिखाई दे रहा है सब माया है, तुम क्या लाये थे, क्या ले जाओगे पर गहन मंथन कर रहा है, और कोई राम-कृष्ण की कथा के माध्यम से प्रेरणा दे रहा है, कोई जीने के गुर सिखा रहा है ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’. कोई मंदिर जा रहा है, कोई मस्जिद और कोई चर्च में, कोई अखंड पाठ कर रहा है तो कोई निरंतर जाप. सतही तौर पर ऐसा दृश्य हमारे सामने तैयार है कि अब मुझे ऐसा सोचने का मन करता है कि इस दुनिया से बेहतर कुछ भी नहीं. सब एक दम बदल रहा है और हजारों लोगों की दिन रात की मेहनत का परिणाम निश्चित रूप से एक सुन्दर से संसार का निर्माण करेगा.
लेकिन बहुत
गहरे में उतरकर देखते हैं तो यह सब एक मंच पर अभिनय के सिवा कुछ भी नहीं है. जिस
तरह से रंगमंच में एक कलाकार मुखौटा पहनकर अपने अभिनय के माध्यम से सबका ध्यान
अपनी और आकर्षित करता है और बहुत प्रेरक सन्देश के माध्यम से बहुत बड़ी-बड़ी बातें
करता है, वैसा ही बहुत कुछ यहाँ भी अभिनीत किया जा रहा है. सब तो नहीं,
लेकिन ज्यादातर बदलाव की बात करने वाले लोग सिर्फ अभिनय कर रहे हैं और अपना
स्वार्थ सिद्ध करने की फ़िराक में हैं. जिसका स्वार्थ जिस माध्यम से आसानी से सिद्ध
हो सकता है, वह उस तरकीब को अपनाने की कोशिश कर रहा है. ज्यादातर का बदलाव से कोई
लेना देना नहीं उनका एक ही मकसद है अपने स्वार्थों की पूर्ति करना और इसके लिए वह
भीड़ का सहारा लेते हैं, खुद मुखौटा पहनते हैं और उस मुखौटे के आकर्षण से सबको
आकर्षित करते हुए अपना रुतवा कायम करते हुए अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं.
लेकिन जैसे ही इनका मुखौटा उतरता है इनकी वास्तविकता समझ आ जाती है, लेकिन तब तक
बहुत देर हो चुकी होती है, ऐसी स्थिति में आम व्यक्ति एक बार फिर ठगा जाता है और
फिर वह इसी प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है. हर बार वह स्वतन्त्र होने की सोचता
है, अपने जीवन को सही ढंग से जीने का प्रयास करता है, और जहाँ से भी उसे अपने लिए
सही और सुरक्षित किनारा मिलता है वह उस और पूरी तन्मयता से बढ़ता है,लेकिन अफ़सोस इस
बात का है कि हर बार, वह हर स्तर पर ठगा जाता है. ऐसे में न तो कोई बदलाव की आशा
कर सकता है और न ही वास्तविक रूप से कोई बदलाव लाया जा सकता है.
यह प्रश्न
भी विचारणीय है कि हम किस तरह का बदलाव चाहते हैं. कुछ क्रांतिकारी विचारों के
स्वयंभू समाज सुधारक यह भी कहते हुए सुने जाते हैं कि आज से पहले जो भी व्यवस्थाएं
समाज में चली आ रही हैं उन सबको बदलने की जरुरत है, वह सब कुछ का ठिकरा किसी एक के
सर पर फोड़ने का पूरा प्रयास करते हैं और खुद को उन सबसे श्रेष्ठ स्थापित करने की
कोशिश करते हैं. लेकिन कैसे इन व्यवस्थाओं को बदला जा सकता है, किस कमी को शीघ्र
ठीक करने की जरुरत है और उसका क्या लाभ समाज को हो सकता है, इसके विषय में वह
स्पष्ट नहीं होते. वह बात तो भविष्य को बदलने की करते हैं लेकिन उन्हें वर्तमान और
इतिहास की कोई ख़ास समझ नहीं होती, बस वह एक राग अलापते हैं और उसी के बल पर अपना
प्रभुत्व कायम करने की कोशिश करते हैं .....!!!! शेष अगले अंक में....!
बहुत ही बेहतरीन लेख केवल राम जी । अगला भाग पढने की इच्छा उत्कट हो गई है । इंतज़ार रहेगा
जवाब देंहटाएंबदलावों को रेखांकित करती एक लाजवाब सीरीज के लिए आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुदर लिखते हैं आप समय पर सटीक टिपपड़ी भी है और लेखन कला भी।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यबद
बेहतरीन बिंदुओं को रेखांकित करता लेख ......
जवाब देंहटाएंबदलाव की सार्थकता तो इसी में है कि हम आज कल से अच्छा अनुभव करें।
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