दुनिया भर के श्रेष्ठ साहित्य का जब हम बहुत गहराई से अध्ययन करते
हैं तो पाते हैं कि दुनिया भर का अधिकतर साहित्य एक बिन्दु पर केन्द्रित है और वह
बिन्दु है मानवीय मूल्यों का विकास या मानवीय मूल्यों की स्थापना. आखिर ऐसा
क्या है कि मानव को अपने मूल्यों का विकास करना पड़ता है. जबकि धरा पर जितने भी
प्राणी रहते हैं उन पर यह नियम लागू नहीं होता. दुनिया भर में लिखे गए साहित्य का
अधिकतर भाग मानवीय मूल्यों की स्थापना का है. भाषा चाहे कोई भी हो. रचना की विधा
चाहे कोई भी हो. लेकिन सबके मूल में मानवीय मूल्यों को तरजीह दी गयी है. हमारे देश
में ही वेदों से लेकर आज तक जितना भी साहित्य रचा गया है उसके केन्द्र में मानव
रहा है और मानवीय मूल्यों की स्थापना इन सब रचनाओं का मूल उद्देश्य है. वेद को
भारतीय जीवन की आत्मा के रूप में चिन्हित किया जाता है, तो उपनिषद को उसका संगीत माना जाता है, रामायण को हृदय की संज्ञा से अभिहित किया जाता है तो, महाभारत को उसका मस्तक माना जाता है, पुराण प्रज्ञा,
दर्शन उसका गाम्भीर्य, धर्म मर्यादा और आचार
को उसके मूल्यबोध के रूप में चिन्हित किया जाता है. साहित्य का यह संसार एक
परिपूर्ण मानव की परिकल्पना से भरा पडा है और आज भी इस परिकल्पना को मूर्त रूप देने
के प्रयास किये जा रहे हैं.
जब हम गहराई से इस दुनिया के इतिहास को समझने का प्रयास करते हैं तो
पाते हैं कि इस दुनिया का ज्यादातर इतिहास मानव का मानव से प्रेम का नहीं, बल्कि मानव का मानव से संघर्ष का इतिहास है. इस धरा
पर अनेक सभ्यताएं और संस्कृतियाँ जन्मी, उन्होंने अपने शीर्ष
को हासिल किया और फिर काल का ग्रास बन गयी. समय के साथ-साथ उनका अस्तित्व मिटता
गया. फिर एक नयी सभ्यता और नई संस्कृति ने जन्म लिया. देश काल और वातावरण के
अनुरूप उस सभ्यता और संस्कृति ने अपने को स्थापित किया और फिर एक समय ऐसा आया कि
वह भी समाप्त गयी. यह क्रम अनवरत रूप से चल रहा है सृष्टि के प्रारम्भ से और चलता
रहेगा जब तक इस धरा पर मानव जीवन है. इसे ही हम परिवर्तन कहते हैं, और परिवर्तन को प्रकृति का एक अनिवार्य नियम माना जाता है. यहाँ यह बात
गौर करने योग्य है कि प्रकृति के परिवर्तन और मानव के परिवर्तन में बहुत बड़ा अन्तर
है.
हालाँकि यह बात भी हमें
ध्यान में रखनी चाहिए कि मानव भी प्रकृति का एक हिस्सा है. इसकी संरचना और उसके
जीवन का हर एक पक्ष प्रकृति से निसृत है. हम मनुष्य के शरीर की अवस्था से भी इस
परिवर्तन और प्रकृति के नियम को समझ सकते हैं. मनुष्य के शरीर की अवस्थाओं बचपन, जवानी, प्रौढ़ावस्था, बुढापा या विकास मनुष्य की अपनी इच्छानुसार नहीं होता. यह प्रकृति का नियम
है कि बचपन से बुढ़ापा आएगा ही उसे कोई रोक नहीं सकता. अर्थात प्रकृति, पर्यावरण, समाज एवं जीवन में घटने वाली घटनाओं एवं
परिस्थितियों को रोक पाना इसके वश में नहीं है. इसलिए मनुष्य भी परिवर्तन से अछूता
नहीं है. लेकिन मानवीय सभ्यता और संस्कृति में जो परिवर्तन आते हैं वह मानव को
पूरी तरह से परिवर्तित कर देते हैं. लेकिन प्रकृति में जो परिवर्तन आते हैं वह
उसके काल चक्र का हिस्सा होते हैं. लेकिन मनुष्य में आये परिवर्तन काल चक्र का
नहीं बल्कि उसकी प्रवृतियों में आये परिवर्तन का हिस्सा होते हैं.
इसे यूं भी समझा जा सकता
है. प्रकृति अनवरत रूप से परिवर्तित होती रहती है. लेकिन वह एक चक्र के बाद वहीँ
पहुँच जाती है, जहाँ से वह शुरू होती
है. छोटे से छोटे स्तर से लेकर बड़े से बड़े स्तर तक इस चक्र को विश्लेषित किया जा
सकता है. लेकिन मनुष्य के मामले में ऐसा नहीं है. आज हम सतयुग या त्रेता की सभ्यता
और संस्कृति में नहीं जा सकते. वह घटित हो गया और अब उसकी पुनरावृति किसी भी
स्थिति में नहीं हो सकती. अब न तो राम इस धरा पर आ सकते हैं और न ही कृष्ण. न तो
रावण का जन्म हो सकता है और न ही कंस का बध किया जा सकता है. राम और कृष्ण हमारी
सभ्यता और संस्कृति के प्रतिक ही नहीं, बल्कि इन दोनों
व्यक्तित्वों ने हमारी सभ्यता, संस्कृति और मानवीय मूल्यों
को बहुत गहरे तक प्रभावित किया है. हालाँकि और भी बहुत से कारण और व्यक्ति रहे हैं
जिन्होंने मानवीय जीवन के अनेक पक्षों को प्रभावित किया है, लेकिन
इन दोनों (राम और कृष्ण) का प्रभाव हमारे साहित्य, समाज,
संस्कृति आदि पर व्यापक रूप से पडा है.
भारतीय साहित्य में राम
और कृष्ण के विराट व्यक्तित्व को बहुत बृहत् रूप में उदघाटित किया गया है. इन
दोनों का जीवन और कर्म हमारे लिए प्रेरक हैं और आज ही नहीं, बल्कि जब तक मानव इस धरा पर रहेगा वह इन दोनों से
प्रभावित होता रहेगा. यह दोनों सभ्यता और संस्कृति के निर्माण और विध्वंस के नायक
रहे हैं. इसलिए इन दोनों के जीवन को समझने के लिए हमने एक निरपेक्ष दृष्टिकोण की
आवश्यकता के साथ-साथ एक मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है. आज तक श्रीराम और
श्रीकृष्ण को आस्था के दृष्टिकोण से ही देखने का प्रयास किया गया है. उन्हें कभी
इतिहास और मानवीय दृष्टिकोण से नहीं देखा गया. अगर राम और कृष्ण को इतिहास के
दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया जाए तो इन दोनों के जीवन का मकसद ही मानवीय
मूल्यों की स्थापना करना रहा है. मानवीय मूल्यों की श्रेष्ठता के लिए महाभारत का
यह कथन कितना सार्थक है. ‘तीर्थानां हृदयं तीर्थं शुचीनां हृदयं शुचिः’
अर्थात “सभी तीर्थों में हृदय ही परम तीर्थ है, पवित्रता में
हृदय की शुचिता ही प्रमुख है”. हृदय की शुचिता को भारतीय साहित्य में बहुत गहराई
से समझाया गया है और इसके अनेक उदहारण हमें देखने को मिल जाते हैं. हृदय से पवित्र
व्यक्ति अपनी पवित्रता के कारण ईश्वर तक को पाने में समर्थ हो सकता है, वह उससे मनचाहा वर प्राप्त कर सकता है. अपने व्यक्तित्व को और उज्जवल बना
सकता है. इसलिए हमारे देश में व्यावहारिक जीवन में भी पवित्र हृदय व्यक्ति को ऊँचा
स्थान दिया जाता है.
लेकिन वर्तमान सन्दर्भों
में हम देखें तो परिस्थितियाँ कुछ बदली हुई नजर आती हैं. आज हम प्रत्येक कर्म के लिए
दूसरे को दोषी ठहराना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं. जबकि हम भी कहीं न कहीं उसमें
भागीदार होते हैं. जैसे आजकल एक जूमला बड़ा प्रयोग हो रहा है कि यह अमरीकी संस्कृति
का प्रभाव है, या हमारे देश के युवा
पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण कर रहे हैं, आज नशा करना,
चोरी करना, डकैती करना, मारपीट
करना तो व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है. इससे भी आगे व्यक्ति अब
व्यक्ति के खून का प्यासा बना फिरता है. आज पूरे विश्व के हालात ऐसे हैं कि
व्यक्ति कहीं भी अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करता. उसके अंतर्मन में डर बना रहता
है और वह डर उसे विचलित करता रहता है. आम व्यवहार में भी ऐसी स्थितियां पैदा हो
चुकी हैं कि व्यक्ति अपनी भौतिक लालसाओं के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है और गिर
रहा है. जब स्थितियां ऐसी हैं तो एक सुन्दर और स्वस्थ समाज की परिकल्पना करना
बेमानी साबित होती है.
हमें आज ऐसा माहौल तैयार
करने की जरुरत है जहाँ व्यक्ति अपने जीवन के सर्वांगीण विकास की तरफ प्रवृत हो.
भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति या संसारिक उपलब्धियां व्यक्ति के जीवन का एक पक्ष हो
सकती हैं, लेकिन जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए उसे अन्य
पहलूओं की तरफ भी ध्यान देने की जरुरत है. वैसे भारतीय जीवन पद्धति कितनी
वैज्ञानिक थी. जीवन को 16 संस्कारों और चार वर्गों में विभाजित किया गया था और
जीवन के हर एक पड़ाव का लक्ष्य निर्धारित किया गया था. लेकिन आज ऐसा नहीं है,
माता-पिता बच्चों को सिर्फ और सिर्फ हॉट कलर जॉब के लिए तैयार कर
रहे हैं और जब वह बच्चे बड़े होते हैं तो वहीँ कहीं न कहीं उनके लिए दुःख का कारन
भी बन रहे हैं. आज आवश्यकता है दूसरों पर दोषारोपण के बजाय अपने आसपास के वातावरण
को बदलने की, ताकि आने वाली पीढ़ियों के हाथ में हम एक सुन्दर
सामाजिक व्यवस्था सौंप कर जाएँ.
व्यवहार में दोषारोपण तो है ही , अपनी जिम्मेदारी भी भूल रहे हैं..... विचारपूर्ण जीवनदर्शन
जवाब देंहटाएंअति-उत्तम विचार, सुंदर आलेख !
जवाब देंहटाएंआज हम प्रकृति के अनुसार न चल कर उसे अपने अनुसार चलाना चाहते हैं.विकास का क्रम ही असंतुलित हो रहा है - जीवन में विकृतियाँ आयेंगी ही.
जवाब देंहटाएंआकर्षक शीर्षक के साथ प्रभावी आलेख है या फिर कहा जाए तो उपनिषदीय विमर्श जो सूत्रों की सुन्दर व्याख्या के रूप में है .
जवाब देंहटाएंआज आवश्यकता है दूसरों पर दोषारोपण के बजाय अपने आसपास के वातावरण को बदलने की, ताकि आने वाली पीढ़ियों के हाथ में हम एक सुन्दर सामाजिक व्यवस्था सौंप कर जाएँ.
जवाब देंहटाएंsahmat...
आपके ब्लॉग को ब्लॉग एग्रीगेटर ( संकलक ) "ब्लॉग - चिठ्ठा" के "विविध संकलन" कॉलम में शामिल कर लिया गया है। सादर …. आभार।।
जवाब देंहटाएंकृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा
हमें आज ऐसा माहौल तैयार करने की जरुरत है जहाँ व्यक्ति अपने जीवन के सर्वांगीण विकास की तरफ प्रवृत हो.
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