जीवन एक सतत चलने वाली
प्रक्रिया है. मनुष्य जीवन के विषय में शायद तब भी कोई विचार नहीं करता जब वह बहुत
गहरे संकट में होता है. यहाँ तक कि मनुष्य जब मृत्यु शैय्या पर होता है तब भी वह
जीवन की प्रासंगिकता के विषय में नहीं, बल्कि अपनी बनी-बनायी दुनिया के विषय में सोचता है. उसका मन इस पहलू पर भी
विचार करता है कि उसके न होने से कई लोगों का जीवन किस तरह से प्रभावित हो सकता
है. मनुष्य जीवन भर कुछ ‘बेहतर’ करने की आशा से जीता है. लेकिन इस बेहतर में उसके
अपने जीवन पहलू, उसकी अपनी जरूरतें, अपनी
इच्छाएं और लालसाएं ज्यादा जुडी होती हैं. इन सबकी पूर्ति के लिए वह निरन्तर सोचता
है, विचारता है और ऐसा प्रयास भी करता है कि उसे कम से कम
समय में अधिक से अधिक लाभ प्राप्त हो और वह अपना जीवन सुखपूर्वक जी सके. अधिकतर
लोगों का जीवन के प्रति यही नजरिया होता है और वह इसी तरह जीवनयापन करते हुए आगे
बढ़ते हैं.
जीवन के प्रति हमारा
दृष्टिकोण कैसा भी हो, हम जीवन
में कुछ भी अर्जित करना चाहते हों. लेकिन एक बात तो तय है कि जीवन अपनी गति से
चलता है. हम न तो उसकी समय सीमा बढ़ा सकते हैं और न ही यह हमारे वश में है कि हम उस
गति को कम कर सकते हैं. जीवन तो साँसों के सफ़र का उत्सव है. साँसों की यह लड़ी जब तक चल रही है, तब तक जीवन
है और जैसे ही इस लड़ी का क्रम टूटा जीवन-जीवन नहीं रह जाता. हम ‘काल’ से बंधे हुए
हैं और ‘साँसों की पूंजी’ हमारे पास सीमित है. अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम
इसका उपयोग कैसे करते हैं. क्योँकि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसके पास यह
अधिकार है कि वह अपने जीवन के लिए क्या लक्ष्य निर्धारित करता है और किस तरह से वह
जीवन को जीता है. इसलिए अध्यात्म की भाषा में मनुष्य जीवन को ‘कर्म योनि’ की
संज्ञा से अभिहित किया जाता है, और यह भी बताया जाता है कि
मनुष्य जन्म इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त चर अचर प्रकृति में सर्वश्रेष्ठ है. इसकी
सर्वश्रेष्ठता के कई पहलू हमारे सामने हैं और ऋषि-मुनियों, गुरु-पीर-पैगम्बरों
ने मनुष्य जीवन की सर्वश्रेष्ठता के इन पहलूओं को हमारे सामने लाने का प्रयास भी
किया है. साथ ही मनुष्य को यह भी निर्देश दिया है कि वह जीवन को किस तरह से जिए और
किस तरह के लक्ष्य वह अपने लिए निर्धारित करे.

जीवन और जीवन की प्रासंगिकता मनुष्य के सामने यक्ष प्रश्न की तरह है, और इस प्रश्न का उत्तर मनुष्य को अपने विवेक से
खोजने का प्रयास करना चाहिए. क्योँकि मनुष्य जीवन भर बाहर की दुनिया को विश्लेषित
करने का प्रयास करता रहता है और यह होना भी चाहिए. लेकिन जितना वह बाहर की दुनिया
पर ध्यान केन्द्रित करता है उतना ही वह अपने भीतर भी ध्यान केन्द्रित करे तो
परिणाम उत्साहजनक हो सकते हैं. क्योँकि जीवन की वास्तविक यात्रा भीतर से शुरू होती
है और उसका कोई अन्त नहीं है. मनुष्य भीतर से जितना बेहतर होगा बाहर की दुनिया वह
उतनी ही बेहतर बनाने का प्रयास करेगा. हम व्यावहारिक जीवन में देखते हैं कि मनुष्य
की सोच किस कदर उसके और उसके सम्पर्क में आने वाले मनुष्यों के जीवन को प्रभावित
करती है. इसलिए जीवन में हर कर्म का महत्व अधिक बढ़ जाता है. हमारे जीवन की
प्रासंगिकता का निर्धारण किसी जीवन के किसी एक पहलू से नहीं होता, इसके लिए हमें सतत अभ्यास करते हुए, मानवीय मूल्यों
को जीवन में धारण करते हुए जीवन के सफ़र को तय करना होता है. अगर हम ऐसा करने में
कामयाब हो जाते हैं तो निश्चित रूप से हमारे जन्म का लक्ष्य तय हो जाता है और जीवन
की प्रासंगिकता का निर्धारण भी, लेकिन अन्तिम निर्णय फिर भी
हमें अपने ही विवेक के अनुसार लेना होगा.
जन्मदिन पर सार्थक जीवन चिंतन प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंकुछ अच्छा कर चलें तो जीवन सार्थक हो जाता है.. आखिर में नेकी ही याद रखते है लोग ....
जंन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक मंगलकामनाएं!
जंन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक मंगलकामनाएं!
जवाब देंहटाएंसार्थक विचार , हार्दिक शुभकामनाएं आपको
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से आपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, अनोखी सज़ा - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !