गत अंक से आगे एक नयी दुनिया नहीं, बल्कि एक बनी-बनाई दुनिया में
नए ढंग से जीना है. प्रेम का यह अर्थ उसके लिए एक ऐसे लक्ष्य को प्राप्त करने जैसा
था, जैसे इसे पाकर वह पूरी दुनिया के लिए प्रेम की एक अद्भुत
मिसाल कायम करेगा. प्रेम और प्रेम के बाद की जिन्दगी के विषय में उसकी अपनी
कल्पनाएँ थी. वह हमेशा मुझे यही कहता कि आज मेरी जिन्दगी प्रेम की जिन्दगी है,
तो मैं उससे सीधा सवाल करता कि क्या कल आपकी जिन्दगी प्रेम वाली
नहीं होगी? तो वह कहता कि तब यह सब कुछ नहीं हो पायेगा न,
जो आज कर रहा हूँ? इस सब-कुछ में उसकी कई
बातों होती, कई तर्क होते, लेकिन कहीं
पर प्रेम का जो अहसास था वह धूमिल सा था. कहाँ तो प्रेम प्रकाश के समान चमकना
चाहिए, लकिन यहाँ प्रेम के आलावा सब चीजों की चमक थी,
लेकिन यह सब चीजें प्रेम रूपी आवरण के पीछे छुपी हुई थी. फिर भी
प्रेम का आवरण धुंधला था.
मैं कभी किसी के मनोभावों
को लेकर कभी कोई अनुमान नहीं लगाता. किसी के दिल में क्या छुपा है उसे समझने की
कोशिश तब तक नहीं करता, जब तक
उसका मुझसे कोई बास्ता न हो. इसलिए मेरे मित्र के जहन में जो भाव चल रहे थे,
उनका मुझसे कोई सीधा सरोकार नहीं था. लेकिन उसे मेरी बातों को समझने
में काफी जिज्ञासा होती तो हम कई बार किन्हीं ख़ास मुद्दों पर बात कर लेते. प्रेम
उनमें से ही एक खास मुद्दा था. प्रेम के विषय में उसे मेरी धारणाएं थोड़ी हटकर लगती
और वह खुद को उन्हीं के अनुरूप बनाने की कोशिश भी करता. लेकिन जब उसे कहीं असफलता
मिलती या फिर कुछ उसके भावों के अनुरूप नहीं होता तो वह थोडा असहज होता और फिर उसी
सन्दर्भ में बात करने या स्पष्टीकरण के लिए मेरे पास आ जाता. यूं ही कई दिनों तक
यह सिलसिला चलता रहा. प्रेम के कई पक्षों के विषय में मैंने उसे समझाने का प्रयास
किया. लेकिन उसे अपनी धुन में रहना ही पसंद था.

उसे ऐसी अवस्था में देखकर
मुझे अपने बीते हुए लम्हों की याद आ रही थी, जीवन का हर वह अहसास जीवन्त रूप ले रहा था. दृश्य आँखों के सामने घूम रहे
थे, सब कुछ पास महसूस हो रहा था. था तो मैं अपने दोस्त के
साथ, लेकिन तनहा था, मेरा मित्र
प्रकृति में अपनी प्रेयसी को खोजकर उससे इकमिक हो चुका था, ठीक
वैसे ही जैसे पन्त अपनी प्रेयसी को प्रकृति में पाते हैं. यहाँ प्रकृति का मानवीकरण
हो रहा था और मानव प्रकृति में समा रहा था. प्रेम की यह निश्छल और अविरल धारा
दोनों और से एक सी बह रही थी और अन्तहीन सफ़र तक साथ होने का अहसास करवा रही थी.
मेरा मित्र जाने कब इस अहसास में खो गया. सब कुछ भूल कर वह सिर्फ प्रकृति में खोना
चाहता था और संभवतः प्रकृति उसमें. यहाँ प्रेम इस रूप में वह रहा था कि दोनों
एक-दूसरे के लिए सहज समर्पित हो गए. कोई बनावटीपन नहीं, एक
सहज समर्पण, एक सहज आकर्षण. सिर्फ और सिर्फ प्रेम, प्रेम के सिवा कुछ भी नहीं. 1+1=1 होने की
प्रक्रिया की शुरुआत और अंत कहीं नहीं. बस एक और एक हो गए.
मैं अपने मित्र की
सुध-बुध खोने की इस स्थिति को देखकर अचम्भित था,
प्रेम को संभवतः उसने पहली बार अनुभव किया था. उसके हावभाव बदल गए
थे, वह प्रेम में बनाबटीपन के बजाय नैसर्गिकता का पक्षधर
होता जा रहा था. रात के इस गहरे सन्नाटे में वह प्रेम में समन्दर में और गहरे
अन्तस् तक उतरने की कोशिश में था. उसे प्रेम लौकिक से अलौकिक की यात्रा महसूस हो
रही थी, जड़ से चेतन का सफ़र, माया से
ब्रह्म की यात्रा. उसे अपने शरीर का भान नहीं रह रहा था, बस
वह चेतना में अवस्थित हो रहा था, एक से एक होने की प्रक्रिया
में एक के बचने की सम्भावना बलबती होती जा रही थी. उसके चेहरे पर एक अलौकिक प्रकाश
छा रहा था, आनन्द के सागर में लगाये गोते उसके जीवन को
परिवर्तित कर रहे थे, उसके जीवन के कई मुखौटे अब उतर चुके थे,
मन का अहम् कब्र में चला गया था, पूरी कायनात
से प्रेम करने का मन कर रहा था. जीवन बदल रहा था, अहम् और
अस्तित्व से शुरू हुई यात्रा, समर्पण और शून्य में प्रवेश कर
गयी थी और इतने में सुबह के सूरज की लालिमा दूर पहाड़ की चोटी पर हमें दिखाई दी,
भोर हो चुकी थी, सब अपने-अपने घरौंदों से निकल
रहे थे, और ऐसे में मेरे मित्र ने जीवन का एक सच अनुभूत कर
लिया था. अब वह निकल पड़ा था प्रेम की एक रौशनी लेकर दुनिया को प्रेम की सीख देने
के लिए, क्योँकि उसने महसूस किया कि अन्ततः संसार में
जो सबसे बेहतर है, वह है “प्रेम”....लेकिन सिर्फ और सिर्फ
“नैसर्गिक प्रेम”.
एक दृश्य और एक सपना, अंततः साकार हो रहा था.