इतिहास
शब्द जहन में आते ही हम अतीत के विषय में सोचना शुरू करते हैं. संभवतः हम अतीत के
विषय में जानने और समझने के लिए कल्पना का सहारा कम ही लेते हैं. कल्पना की ऊँची
उड़ान तो भविष्य के लिए है. अतीत के लिए तो सोच है, समझ है, तर्क है और अंततः अतीत
तथ्य पर आकर रुकता है और वहीँ रूढ़ हो जाता है. अतीत को समझने के लिए तथ्य के मायने
बहुत है, लेकिन भविष्य के लिए तथ्य कहीं भी मायने नहीं रखता. लेकिन जीवन का जहाँ तक
प्रश्न है, यह न तो तथ्य है और न ही तर्क, यह न तो इतिहास है और न ही भविष्य. जीवन
तो बस जीवन है. एक अद्भुत और नैसर्गिक प्रक्रिया.
जीवन
को समझने के लिए आज तक अनेक प्रयास हुए हैं. हर प्रयास का कुछ न कुछ निष्कर्ष
हमारे सामने है. हमारी कोशिश जीवन में यही रहती है कि हम अपने अग्रजों की बनी बनाई
परिपाटी पर चलते हुए जीवन की गति को दिशा दें, और अधिकतर ऐसा ही होता रहा है.
लेकिन दुनिया में एक तरफ अग्रजों की परिपाटी पर चलने वाले लोग रहे हैं तो वहीँ
दूसरी और कुछ ऐसे भी रहे हैं जिन्होंने अपने रास्ते की तलाश खुद की है और मंजिल को
हासिल किया है. यह दौर भी दुनिया में बराबर
चलता रहा है कि एक तरफ परम्परा को मानने वाले रहे हैं तो वहीँ दूसरी और उस परम्परा
का खण्डन करने वाले भी पैदा हुए हैं. लेकिन जिन लोगों ने किसी परम्परा का खण्डन किया
है वह दुनिया को कोई न कोई नयी परम्परा देकर ही गए हैं. लेकिन आने वाले समय में वह
परम्परा जो एक समय नयी थी वह भी पुरानी हो गयी, वह भी जड़ लगने लगी और फिर किसी ने
उसे भी तोड़ने का प्रयास किया और उसके स्थान पर नयी परम्परा स्थापित कर दी. इतिहास
के कालचक्र में यह दौर मनुष्य के अस्तित्व से लेकर आज तक निरन्तर चला आ रहा है और
चलता रहेगा मनुष्य के अन्तिम अवशेष तक.
लेकिन
मैं जिस प्रश्न पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाह रहा हूँ वह मेरे अनुभव को लेकर
है. मेरे ही क्योँ? वह आपके अनुभव को लेकर भी है. मनुष्य जीवन हमें बेशक शरीर की
यात्रा लगता है. लेकिन अब यह महसूस होने लगा है कि मनुष्य की यात्रा शरीर की कम ‘मन’
की ज्यादा है. शरीर तो सिर्फ एक माध्यम मात्र है. शरीर कई मायनों में जड़ जैसा है,
अगर इसमें भाव, विचार, सम्वेदना आदि न हो. तभी तो कबीर ने इसे प्रेम के बिना लोहार
के द्वारा प्रयोग की जाने वाली खाल के समान कहा है. प्रेम ही क्योँ जीवन तो हजारों
भावों, विचारों और सम्वेदनाओं का प्रतिबिम्ब है. हमारी यात्रा हांड-मास के स्थूल ढांचे
की नहीं, बल्कि हमारी यात्रा सूक्ष्म की यात्रा है. यह जड़ की नहीं, बल्कि चेतना की
यात्रा है. इसी चेतन तत्व पर आज तक अनेक तरह से विचार किया गया है और इसे समझने के
प्रयास निरन्तर जारी हैं. शेष अगले अंक में....!!
चलिए इस दृष्टिकोण से भी देखते हैं , सुन्दर परिचर्चा केवल राम जी | अगला भाग पढने की इच्छा तीव्र हो उठी है ....लिखते रहिये और जीवन को समझते रहिये
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंसबका अपना-अपना दृष्टिकोण होता है ...
बहुत सुन्दर चिंतनशील प्रस्तुति ..
निश्चित रूप से जैसा आप कह रहे है वैसे ही होता आया है, आपने अपने विचारों को अच्छी दिशा देने का बेहतर प्रयास किया है।
जवाब देंहटाएं