जीवन एक सफर है और शरीर इस सफर का एक
पड़ाव. भारतीय दर्शन में निहित तत्व हमें इस पहलू की जानकारी बखूबी देता है. जीव और शरीर दोनों को अलग करके देखें तो भारतीय दर्शन की पक्की मान्यता है कि शरीर की यात्रा
सीमित है और जीव की
यात्रा अनन्त है. जीव शरीरों में रहते हुए, शरीरों से कुछ समय के लिए बंधा हुआ प्रतीत जरुर होता है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं है. जीव सूक्ष्म है और शरीर सथूल, जीव चेतन है और शरीर जड़, शरीर नाशवान है, उसकी यात्रा सीमित है, उसे एक दिन मिटना ही है.
लेकिन जीव के विषय में यह मत प्रचलित है कि इसकी यात्रा अनन्त से उद्भूत और अनन्त
में विलीन होने की यात्रा है. इस ब्रह्माण्ड में जितने भी प्राणी हैं, सबके शरीर की एक सीमा है, लेकिन इन शरीरों में
विचरण करने वाले जीव के विषय में मत प्रचलित है कि इसकी यात्रा इन शरीरों से होते
हुए मनुष्य जन्म तक की यात्रा है. मनुष्य जीवन को इस यात्रा का आखिरी पड़ाव भी माना
गया है (मानुष जन्म आखरी पौड़ी, तिलक गया
ते बारी गयी). इसलिए मनुष्य जीवन को इस पूरी कायनात
में श्रेष्ठ माना गया है, और इसे बहुत ऊँचा दर्जा दिया
गया है.
मनुष्य जीवन को इस ब्रह्माण्ड में
उत्पन्न होने वाले जीवों में श्रेष्ठ क्यों माना गया है? इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है. हालाँकि हमारे
धर्म-ग्रन्थ, साधू-सन्त, पीर-पैगम्बर, ऋषि-मुनि आदि इस विषय में हमें स्पष्ट रूप से बताते हैं कि मनुष्य जीवन को
श्रेष्ठ क्यों माना गया है? उनकी मान्यता है कि मनुष्य
जन्म में जीव (आत्मा) इतना चेतन होता है कि वह अपने निज स्वरुप परम पिता परमात्मा
को जानकार उसमें विलीन हो सकता है. जैसे ही कोई जीव ईश्वर का बोध हासिल करता है तो
वह आवागमन के चक्कर से रहित हो जाता है और उसे जिस मकसद के लिए यह शरीर मिला था वह
मकसद पूरा हो जाता है. अब यहाँ एक सवाल और भी उठता है कि मनुष्य ईश्वर की जानकारी
कैसे हासिल कर सकता है? ईश्वर को प्राप्त करने का
माध्यम क्या है? उसे कब पाया जा सकता है? ईश्वर वास्तव में है क्या? ऐसे अनेक प्रश्न हैं
जिन पर वर्षों से विचार किया जाता रहा है. लेकिन इस धरती पर बसने वाले मनुष्यों
में से अधिकतर आज तक ईश्वर के प्रति आस्थ्वान रहे हैं, और
अनेक ऐसे हैं जिन्होंने ईश्वर के बोध को हासिल करने के विषय में अपना मत दिया है.
उसी आधार पर दुनिया भर में यह मान्यता प्रचलित है कि ईश्वर का कोई रूप-रंग-आकार नहीं
है. वह निराकार है, सत्त-चित्त-आनन्द स्वरुप है. उसका
कोई और ओर-छोर नहीं, कोई आदि-मध्य और अंत नहीं, वह देश और काल की सीमा से परे है. वह जाति-मजहब-वर्ण आदि से मुक्त है.
इसलिए मनुष्य को भी ईश्वर से जुड़कर इन ईश्वरीय गुणों को अपनाने की सलाह दी जाती है
और संसार इस दिशा में अग्रसर भी है. जैसा कि आज का वातावरण से इंगित भी होता है.
लेकिन अगर हम गहराई से विश्लेषण करते
हैं तो पाते हैं कि मनुष्य आज वास्तव में खुद से कहीं दूर चला गया है. वह भौतिक
चका-चौंध में इस तरह से रम गया है कि उसे खुद के करीब जाने का कभी अवसर ही नहीं
मिलता. वह जन्म से लेकर जीवन के रहते तक भौतिक चीजों को इकठ्ठा करने में ही अपना
समय लगाता है और अंततः उसके हाथ क्या लगता है? इस
बात से हम सभी भली-भांति परिचित हैं. लेकिन फिर भी संसार का आकर्षण ऐसा है कि
मनुष्य सब-कुछ जानते समझते हुए भी इस और आकृष्ट होता चला जाता है और एक समय ऐसा
आता है कि वह इसी में रम कर इसी का हो जाता है. मनुष्य का इस संसार की बेहतरी के
लिए योगदान देना अलग बात है और इस संसार के वशीभूत होकर जीवन जीना अलग बात है.
दोनों बातों के अन्तर को जब हम समझ जाते हैं तो जीवन के प्रति हमारा नजरिया ही बदल
जाता है और हम फिर जीवन की सार्थकता के विषय में सोचना शुरू करते हैं, और यही वह पड़ाव है जब हम संसार के कार्य करते हुए भी अपने जीवन के मूल
लक्ष्य पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए आगे बढ़ते हैं.
इस शरीर की यात्रा कितनी है, यह हम में से कोई नहीं जानता. जहाँ तक जीवन का प्रश्न है, यह महीनों और सालों की यात्रा तय नहीं करता, बल्कि
इसकी यात्रा क्षणों में तय होती है. हम जब भी कोई निर्णय लेते हैं वह क्षण की ही
उपलब्धि होती है. हमारी सफलता-असफलता, सुख-दुःख, लाभ-हानि सब क्षण की उपज हैं. यह बात अलग है कि इनका जीवन और जीवन के
प्रति हमारे नजरिए से सीधा सम्बन्ध होता है. फिर भी विचारवान मनुष्य इन सब
परिस्थितियों में विचलित नहीं होता. सुख में ज्यादा खुश महसूस नहीं करता और दुःख
में ज्यादा रोना नहीं रोता. वह हमेशा एक सी अवस्था में रहने का प्रयास करता है.
गीता में इसी अवस्था को ‘स्थितप्रज्ञ’ की अवस्था
कहा गया है और मनुष्य से यह भी अपेक्षा की गयी है कि वह अपने जीवन में रहते हुए इस
अवस्था को प्राप्त करे, और हम सबका यह प्रयास भी होना
चाहिए.
उपरोक्त बातों को केन्द्र में रखकर
मैं भी जीवन के विषय में सोचने-समझने का प्रयास वर्षों से कर रहा हूँ. आज जब में
जीवन के पैंतीसवें वर्ष
में प्रवेश कर रहा हूँ तो बीते हुए पलों को विश्लेषित करने की बजाय आने वाले पलों
के विषय में गम्भीरता से सोच रहा हूँ. हालाँकि बीते हुए पलों ने मुझे कुछ सीख दी
है, अनुभव दिए हैं, कुछ
लक्ष्य दिए हैं. लेकिन अब जब मैं कुछ-कुछ जीवन के विषय में समझ रहा हूँ तो मुझे इस
बात का बहुत गहराई से अनुभव हुआ है कि जीवन (शरीर) की यात्रा एक सामूहिक यात्रा है, लेकिन जीव या
जिसे हम आत्मा कहते
हैं, उसकी यात्रा अकेली यात्रा है. आत्मा की यात्रा में
हमारा कोई साथी नहीं, कोई सहयोगी नहीं, यह अकेले (जीव) की अकेली यात्रा है. लेकिन शरीर में रहते हुए जीवन की
यात्रा सामूहिक सहयोग की यात्रा है. शरीर जब तक है, तब
तक सांसारिक रिश्ते-नाते हैं, सुख-दुःख हैं, मतलब वह सब कुछ है जो हम इस दृश्यमान जगत में महसूस करते हैं. लेकिन इन
सबमें हम वास्तविक आनन्द को नहीं खोज सकते. हम जीवन में जिस चीज को पाने के लिए
सबसे ज्यादा संघर्ष करते हैं, उस चीज की प्राप्ति के
बाद हमें किसी और चीज की लालसा फिर से उत्पन्न होने लगती है और यह क्रम अनवरत चलता
रहता है. लेकिन जब हम आत्मिक रूप से इस ईश्वर के साथ जुड़ जाते हैं तो फिर संसार
हमें एक औपचारिकता मात्र लगता है. फिर जीवन का हर कर्म दूसरे की ख़ुशी के लिए किया
जाता है, और ऐसा जीवन सही मायनों में जीवन कहलाता है.
लेकिन यह होता तब है जब हम स्वार्थों से ऊपर उठकर जीवन को जीने की कोशिश करते हैं.
वैसे जब से जीवन को समझना शुरू किया है, इसके ऐसे अनेक
पहलू अनुभूत किये हैं कि सोच कर मन रोमांच से भर जाता है, और ऐसे भाव पैदा होते हैं कि दूसरों की ख़ुशी के लिए और कार्य किया जाए.
कोशिश भी यही है और लक्ष्य भी यही है. देखते हैं अपने जीवन रहते हम कितना सफल हो
पाते हैं, यह भविष्य के गर्भ में है, लेकिन प्रयास जारी है.
जीवन की इस यात्रा में आप सबका सहयोग और प्रेरणा मेरे लिए हमेशा
ऊर्जा का काम करते रहे हैं. पिछले छह वर्षों से मैं लगातार अंतर्जाल पर सक्रीय हूँ, योगदान कितना है, यह तो नहीं कह सकता. लेकिन आप
सबसे मैंने बहुत कुछ सीखा है, समझा है, पाया है. जितना स्नेह और सम्मान मेरे अंतर्जाल के साथियों ने मुझे दिया है, उतना ही जीवन के अनेक पलों में साथी रहे बंधुओं ने दिया है. इस स्नेह, सम्मान और प्रेरणा के लिए मैं हृदय से सबका आभारी हूँ.
जन्मोत्सव की हार्दिक बधाइयाँ और शुभाशीष! हम आत्मा और शरीर का चक्र समझें और स्वयं को जीवन के दुष्चक्र से दूर रखें तो जीवन भले माया हो, एक सुन्दर उदाहरण छोड़ जाएगा. बहुत ही चिन्तापरक आलेख है यह. बहुत बहुत बधाई!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंजन्मदिन की शुभकामनाएं !
बहुत अच्छी विचारणीय प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
हर बात का चिंतन बहुत गहराई से आपका चिंतन विचारणीय हैं जन्मदिवस को लेकर जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें केवल भाई :)
जवाब देंहटाएंआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डॉ. राम मनोहर लोहिया और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंवाह क्या कहने जी बहुत सुन्दर | पहले तो जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें आपको | ईश्वर आपको यूं ही ऊर्जावान और कल्पनाशील बनाए रखे | सुन्दर चिंतन जी ...................जारी रहिये
जवाब देंहटाएंसुन्दर। जन्मदिन पर शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंशरद पूर्णिमा की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (16-10-2016) के चर्चा मंच "शरदपूर्णिमा" {चर्चा अंक- 2497 पर भी होगी!
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आपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
जन्मदिवस की बधाई!चिन्तनशील स्वभाव उच्चतर मानसिक-सोपानो की ओर बढ़ने लिये शुभ लक्षण है .
जवाब देंहटाएंजन्मदिन पर ढेरों शुभकामनाएं। जीवात्मा और आत्मचिंतन पर सुन्दर प्रस्तुति। खुशी होती है जब किसी सफर में किसी का साथ हो।
जवाब देंहटाएंजन्मदिन पर ढेरों शुभकामनाएं। जीवात्मा और आत्मचिंतन पर सुन्दर प्रस्तुति। खुशी होती है जब किसी सफर में किसी का साथ हो।
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