इस ब्रह्माण्ड को जब हम समझने का प्रयास करते हैं तो हम यह पाते हैं
कि इसकी गति निश्चित है. जितनी भी जड़ और चेतन प्रकृति है वह अपनी समय और सीमा के
अनुसार कार्य कर रही है. विज्ञान ने अब तक जितना भी इस ब्रह्माण्ड के विषय में
जाना है उससे तो यही सिद्ध होता है कि इस ब्रह्माण्ड का आधार विज्ञान है. जिनती भी
जड़ और चेतन सत्ता है वह सब नियम से बंधी हुई है,
और उसी नियम के अनुरूप वह कार्य कर रही है. अगर कहीं पर थोड़ी सी भी
असंतुलन की स्थिति पैदा होती है तो प्रकृति उसे संतुलित करने का प्रयास करती है,
और कई बार प्रकृति का यह प्रयास किसी के लिए नुकसानजनक होता है तो
कई बार यह किसी के लिए लाभदायक हो जाता है. लेकिन बहुत गहराई में जाकर देखते हैं
तो इस प्रकृति की उत्पति से लेकर आज तक यह नियमों में बंधी हुई प्रतीत होती है,
वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने जो मत और निष्कर्ष हमारे सामने
रखे हैं उससे भी यही प्रतीत होता है कि यह सृष्टि एक ख़ास नियम के तहत निर्मित हुई
है और समय के साथ-साथ इसमें बदलाव हुए हैं और यह बदलाव निरन्तर जारी हैं. लेकिन एक
दिन ऐसा भी आएगा कि इस सृष्टि का अस्तित्व भी समाप्त हो सकता है. लेकिन कब?
इसके विषय में कोई अनुमान नहीं लगा सकता.
इस पूरी जड़ और चेतन सत्ता के बीच में अनेक जीव-जन्तु हैं, वनस्पतियां हैं. लेकिन मनुष्य का जहाँ तक प्रश्न है वह भी इसी प्रकृति का एक हिस्सा है. इस
धरा पर रहने वाले अधिकतर जीव सुख और दुःख की अभिव्यक्ति लगभग एक से तरीके से करते
हैं. हमारे देश में तो यह भी मान्यता रही है कि निद्रा-भोजन-भोग और भय की
अभिव्यक्ति पशु और पुरुष में समान रूप से होती है. जीव-जन्तुओं के रहन-सहन और
व्यवहार से कई बार यह प्रतीत होता है कि वह भी एक ख़ास मकसद से क्रिया-प्रतिक्रया
करते हैं. इसलिए जितना भी उपलब्ध ज्ञान मनुष्य के पास है वह उस आधार पर इस तथ्य को
उद्घाटित करने का प्रयास करता है कि मनुष्य के आसपास रहने वाले जीव-जन्तु और
वनस्पति भी अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हैं, और वह भी
अपने सुख-दुःख, हर्ष-शोक को उसी तरह अभिव्यक्ति करते हैं
जैसे कि मनुष्य करता है. वह भी साथ रहना पसंद करते है, उन्हें
भी अपने को नुकसान पहुँचाने वाले से डर लगता है, वह भी उससे
बचने का प्रयास करते हैं. उनके लिए भी जीवन का मोल है. ऐसे बहुत से तत्व और पहलू
हैं जो इस धरा के प्राणियों में समान रूप से पाए जाते हैं, फिर
भी मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो इन सबसे श्रेष्ठ है. लेकिन इतना तो मनुष्य को भी
नहीं भूलना चाहिए कि वह भी इस प्रकृति का हिस्सा है, वह भी
इस प्रक्रति की ही उपज है और उस पर भी प्रकृति के सभी नियम समान रूप से लागू होते
हैं और उन नियमों का पालन करना मनुष्य का कर्तव्य है, वर्ना
प्रकृति उसे कई बार अवहेलना का दंड दे देती है और यह कई बार हुआ भी है.
हम थोड़ी सी कल्पना इस सृष्टि के प्रारम्भ के विषय में करें, जब यह संसार उत्पन्न हुआ होगा! कैसी अवस्था रही होगी
उस समय की? यह जानना बड़ा रोचक है. लेकिन बहुत सी जानकारियां
होने के बाबजूद भी कोई अन्तिम प्रमाण और तथ्य हम प्रस्तुत नहीं कर सकते, लेकिन फिर भी कुछ सिद्धान्तों और स्थापनाओं को समझते हुए सृष्टि की
उत्पत्ति और उसकी गति के विषय में जाना जा सकता है और ऐसा प्रयास चिरकाल से होता
भी रहा है. आज भी प्रकृति के रहस्यों को जानने के प्रयास निरन्तर जारी है. इन सब
प्रयासों के विषय में हमें जिस माध्यम से जानकारी मिलती है उसे हम ‘साहित्य’ कहते
हैं. साहित्य जिस माध्यम से हमारे पास उपलब्ध होता है उसे हम ‘भाषा’ कहते हैं,
और भाषा का पठन-पाठन जिस माध्यम से किया जाता है उसे ‘लिपि’ कहा
जाता है. लेकिन ऐसा भी हम देखते हैं कि मनुष्य जब पैदा होता है तो वह अपने
मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा का सहारा लेता है.
किसी नवजात को जब हम देखते हैं तो वह भी अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति
देता है, वह सबसे पहले रोता है जब उसके पास शब्द नहीं होते,
धीरे-धीरे वह शब्दों के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्त करता है.
मनुष्य की भाषा और उसके सीखने की प्रक्रिया पर भी बहुत अनुसंधान हुए हैं, और इस दिशा में निरन्तर प्रयास जारी हैं कि आखिर एक बच्चा भाषा को किस तरह
से सीखता है और उसके सीखने की प्रक्रिया क्या है? मैं यहाँ
उन सिद्धान्तों की चर्चा करने के बजाय कुछ मौलिक और अनुभवजन्य बातों को आपसे साझा
करने का प्रयास करूँगा. वैसे यह भी कितना रोचक विषय है कि एक बच्चा जिस परिवेश में
पलता है वह उसी तरह की भाषा बोलता है. भाषा-विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि में भाषा
की कुछ परिभाषाएं तय की गयी है, उसके अनुसार एक बच्चा अपने
भावों की अभिव्यक्ति के लिए जिस भाषा को अपनी माँ से सीखता है उसे ‘बोली’ कहा जाता
है. पूरे संसार में यह बात देखने को मिलती है कि जो व्यक्ति जिस परिवेश में पैदा
होता है वह उसी परिवेश की ‘बोली’ को अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग करता
है. यहाँ यह जानना भी बड़ा दिलचस्प होगा कि भाषा-भाव-सम्वेदना और विचार का एक दूसरे
के साथ क्या सम्बन्ध है और यह किस तरह से अभिव्यक्त होते हैं.
शब्द और भाव की स्थिति क्या है? मनुष्य किस तरह से इनका प्रयोग करता है? भाषा किस तरह से मनुष्य और मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करती है? मनुष्य की सोच और भाषा का क्या सम्बन्ध है? क्या
मनुष्य जो सोचता है, वही अभिव्यक्त करता है? मानवीय व्यवहार के ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिन पर भाषा
के दृष्टिकोण से विचार किया जा सकता है. हमें इस पहलू पर भी विचार करना होगा कि
अगर मनुष्य भाषा-विहीन होता तो वह क्या करता? या ऐसे भी सोचा
जा सकता है कि भाषा-विहीन मनुष्य का व्यवहार कैसा होगा. भाषा और मनुष्य के व्यवहार
के अध्ययन का पहलू बड़ा रोचक है. लेकिन यह सैद्धांतिक विमर्श की मांग करता है. मैं
यहाँ सिर्फ दो-तीन बिन्दुओं पर विचार के अभिव्यक्त करने की कोशिश करूँगा, और उसमें मुख्य बिन्दु यही है कि अभिव्यक्ति किस भाषा में बेहतर हो सकती
है. सीखी हुई भाषा में या जिसे हमें सहज में सीखा है. बाकी बिन्दु अगले अंक में...!!!
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ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.